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    22 मई को अन्तर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस पर पर विशेष - यदि जैव विविधता को बचाना है तो भारतीय संस्कृति में निहित प्रकृति संरक्षण की अवधारणाओं को जीवन -शैली का अंग बनाया होगा:डाॅ० गणेश पाठक



    उत्तर प्रदेश बलिया 
    इनपुट: हिमांशु शेखर 

      
    बलिया उत्तरप्रदेश :---पूरे विश्व के देशों में प्रत्येक वर्ष 22 को अन्तर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस प्राय: विश्व के सभी देशों में मनाया जाता है। इस वर्ष की युख्य थीम है "प्रकृति और  सतत विकास के साथ सामंजस्य" । जिसका  मुख्य उद्देश्य प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए जैव विविधता को सुरक्षित एवं संरक्षित करना है। इसके लिए जन जागरूकता उत्पन्न कर जैव विविधता को बचाने हेतु जन - जन में चेतना लानी होगी।
       मानव इस सृष्टि का सबसे महत्वपूर्ण एवं क्रियाशील प्राणी है। वह स्वयं एक सर्वश्रेष्ठ संसाधन हैं एवं संसाधन निर्माणकर्ता भी है। मानव अपने विकास हेतु सतत् क्रियाशील रहा है एवं अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रकृति का सतत् दोहन एवं शोषण करता रहा है। प्रकृति में निहित सभी सम्भावनाओं का मानव द्वारा भरपूर उपभोग किया गया। इसका प्रभाव यह पड़ा कि प्राकृतिक  संसाधन समाप्त होते जा रहे हैं।वनों का विनष्ट होना विशेष रूप से घातक सिद्ध हो रहा है। प्रकृति में असंतुलन की  स्थिति उत्पन्न होने लगी है,
    जिसके चलते हमारा सम्पूर्ण पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र ही असंतुलित होता जा रहा है, जिससे जैव विविधता समाप्त होती जा रही है। मानव द्वारा किया गया अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास अब विनाश की तरफ अग्रसर हो रहा है। 
           
    File photography डाॅ० गणेश पाठक:

    हमारा पर्यावरण एक वृद्ध मशीन की तरह है एवं समस्त पेड़ - पौधे व प्राणी जगत इसके जीवन के पेंच एवं पूर्जे हैं। मानव की भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन के चलते पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी में इतना अधिक असंतुलन उत्पन्न होता जा रहा है कि न केवल मानव जीवन ,अपितु सम्पूर्ण पादप जगत एवं जीव -जंतु जगत का अस्तित्व संकट में पड़ता जा रहा है। कारण कि हमारे सभी प्राकृतिक संसाधन- वन,भूमि,जल, जीव, वायु, खनिज आदि समाप्ति के कगार पर पहुंच चुके हैं। जो बचे हैं,वो इतने प्रदूषित हो गए हैं कि मानव के जीवन ,स्वास्थ्य एवं कल्याण स्रोतों के समक्ष अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। प्रकृति में हो रहे असंतुलन के कारण धरती का जीवन - चक्र भी समाप्त होता नजर आ रहा है। प्रकृति के बढ़ते असंतुलन के कारण बाढ़,सूखा,भू- स्खलन,मृदाअपरदन,मरूस्थलीयकरण,भूकम्प, ज्वालामुखी, सुनामी,ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन जैसी प्राकृतिक आपदाएं उत्पन्न होकर हमारा अस्तित्व मिटाने पर तत्पर हैं। इसके अतिरिक्त अनेक मानवजनित आपदाएं भी भयंकर रूप धारण कर मानव के ही अस्तित्व को मिटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं एवं "हम ही शिकारी, हम ही शिकार" वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।
           
    प्रश्न यह उठता है कि आखिर मानव के समक्ष उत्पन्न संकट एवं  प्राकृतिक असंतुलन को  को कैसे रोका जाय। यह भी सत्य है कि हम विकास को भी नहीं रोक सकते। ऐसे में हमें एक ही रास्ता दिखाई देता है कि यदि हम सनातन संस्कृति एवं भारतीय परम्परागत ज्ञान परम्परा में निहित अवधारणाओं के अनुसार प्रकृति के अनुसार व्यवहार करें, उसके अनुसार अपनी जीवन शैली एवं जीवन चर्या को अपनाएं तो निश्चित ही हम प्रकृति को भी बचा सकते हैं, प्रदूषण को भी भगा सकते हैं एवं पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी संतुलन भी बनाए रख सकते हैं। क्यों कि सनातन संस्कृति अर्थात् हमारी भारतीय संस्कृति में प्रकृति संरक्षण की मूल संकल्पना छिपी हुई है। भारतीय संस्कृति अरण्य संस्कृति एवं प्रकृतिपूजक संस्कृति है,जिसमें हम प्रकृति के सभी कारकों में देवी - देवताओं का वास मानकर उनकी पूजा करते हैं। भारतीय संस्कृति में प्रकृति के पांच मूल-भूत तत्वों- धरती,जल,अग्नि,आकाश एवं वायु का भी पूजा का विधान बनाया गया है। ऊर्जा के अजस्र स्रोत 'सूर्य' की भी हम पूजा करते हैं। सभी उपयोगी वृक्षों पर भी देवी- देवता का वास मानकर उनकी पूजा का विधान बताया गया है ताकि उनकी रक्षा हो सके। सभी जीव- जंतुओं को देवी - देवता का वाहन बना दिया गया है,जिससे कि जीव - जंतुओं को कोई नुक्सान न पहुंचा सके।
          
    हम भगवान की पूजा करते हैं और भगवान में पांच शब्द है- भ, ग, व, अ एवं न ,जिनका मतलब होता है क्रमश: भूमि,गगन, वायु, अग्नि एवं नीर। अर्थात प्रकृति के जो पांच मूल-भूत तत्व हैं - " क्षिति,जल, पावक,गगन,समीर", इन्हीं पांच तत्वों की पूजा हम भगवान के रूप में करते हैं। मानवोपयोगी एवं प्रकृति संरक्षण से जुड़ी ऐसी अवधारणाएं विश्व में कहीं नहीं मिलती हैं।
    ये सभी अवधारणाएं हमारे भारतीय वांगमय- वेद, पुराण, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ, मनुस्मृति,चरक संहिता,धर्मसूत्र, रामायण, महाभारत सहित अनेक संस्कृत ग्रंथों में भरी पड़ी हैं।
         
    यही नहीं यदि हम भारतीय परम्परागत ज्ञान परम्परा को देखें तो हमारे परम्परागत ज्ञान परम्परा में ऐसी मानवोपयोगी एवं प्रकृति संरक्षण संबंधी अवधारणाएं निहित हैं,जिनका अनुपालन कर मानव न केवल अपना हितलाभ कर सकता है, बल्कि प्रकृति एवं पर्यावरण की सुरक्षा करते हुए जैव विविधता  को सुरक्षित एवं संरक्षित करने में भी अहम् भूमिका निभा सकता है। हमारे जो भी रीति रिवाज, परम्पराएं, प्रथाएं,उत्सव,त्यौहार,कहावतें, लोकोक्तियां एवं लोकगीत हैं, सबमें ऐसी विचारधाराओं का समावेश है,जिनका अनुसरण कर मानव न केवल अपना भला कर सकता है, बल्कि प्पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी अर्थात् सम्पूर्ण प्रकृति की रक्षा कर पादप जगत एवं जीव- जंतु जगत की भी रक्षा कर अपना संतुलित विकास करते हुए "सर्वे भवन्तु सुखिन,सर्वे संतु निरामया" एवं "वसुधैव कुटुम्बकम्" की उद्दात भावना से संपृक्त होकर  न केवल भारत ,बल्कि विश्व के कल्याण के लिए भी अग्रसर होगा।

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