उत्तर प्रदेश बलिया
इनपुट: हिमांशु शेखर
बलिया उत्तरप्रदेश:---स्कंध पुराण में उल्लेख आया है कि -
'लिंगानां च क्रम वक्ष्ये
यथावच्छृणुत द्विजा: ।
सदैव लिंग प्रथमं
प्रवचन सर्व कामिकम्।
सूक्ष्म प्रणव रूपंहि
सूक्ष्म रूप ही निष्कर्म।
स्थूल लिंग ही सकलं
तत्पंचाक्षर मुच्यते।
अर्थात शिवलिंग का अर्थ ओंकार के स्थूल एवं सूक्ष्म रूपों से है। यह रूप सर्वत्र समाना रूप से व्यापक है।
हम जानते हैं कि ब्रह्मांड अनंत है। उसका न तो आदि है और न ही अंत। ब्रह्माण्ड की सीमा का निर्धारण करना बिल्कुल असंभव है। ब्रह्माण्ड को वलयाकार माना गया है और वही लिंग का भी रूप है। अतः शिवलिंग पूजा की जो परम्परा प्रचलित है एवं जिसकी प्रतिष्ठा होती है,वह लिंग ब्रह्माण्ड के ही आकार का होता है और वैसा ही शिव लिंग पूजन के काम में आता है।
इस तरह हम देखते हैं कि शिव पुराण एवं लिंग पुराण के आधार पर लिंग का जो वर्णन मिलता है,वह लिंग ब्रह्माण्ड का ही द्योतक है। अतः शिवलिंग को ब्रह्माण्ड का ही आकार समझना चाहिए।
लिंग पुराण के तीसरे अध्याय में कहा गया है कि ' भगवान शिव अलिंग हैं'। उसी प्रसंग में प्रकृति प्रधान को लिंग माना गया है। शंकर तो निर्गुण हैं। प्रकृति सगुण है। प्रकृति या लिंग के विस्तार से ही सृष्टि की रचना होती है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड लिंग के अनुरूप है। सम्पूर्ण सृष्टि ही लिंग है या लिंग के अन्तर्गत है या लिंगमय है और अन्ततः लिंग में ही सृष्टि समाहित हो जाती है।
यदि लिंग के शाब्दिक अर्थ को देखा जाय तो लिंग का शाब्दिक अर्थ होता है- 'चिन्ह'। देव चिन्हों में लिंग शब्द का अर्थ 'शिवलिंग' ही ग्राह्य है। स्कंध पुराण में लिंग के अर्थ को स्पष्ट करते हुए 'लय नाल्लिंगमुच्यते' कह कर संबोधित किया गया है,जिसका अर्थ होता है कि जिसमें सृष्टि का लय या प्रलय हो ,वहीं लिंग है। पुराणों में जो उल्लेख प्राप्त होते हैं ,उनके अनुसार लिंग के मूल में ब्रह्मा ,मध्य में विष्णु एवं ऊपरी भाग में प्रणव रूप शिव का वास होता है। उस लिंग से त्रिदेव की उत्पत्ति मानी गयी है और लिंग का पूजन - अर्चन करने से ही त्रिदेव - ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की पूजा पूर्ण हो जाती है। इन्हीं सब कारणों से शिव लिंग की पूजा का विशेष महत्व है।
FILE PHOTO डा.गणेश पाठक (पर्यावरणविद्) पुर्व प्राचार्य
कैसे हुई शिवलिंग की उत्पत्ति -
शिवलिंग की उत्पत्ति कैसे हुई एवं लिंग पूजा का वास्तविक रहस्य क्या है? इस संबंध में स्कंध पुराण में एक कथा का उल्लेख हुआ है,जिसके अनुसार - सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात एक बार ब्रह्मा एवं विष्णु में विवाद उत्पन्न हो गया कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है? ब्रह्मा का कहना था कि चूंकि मैंने सृष्टि का निर्माण किया है,अंत: मैं सबसे श्रेष्ठ हूं। जबकि विष्णु का कहना था कि मैं सम्पूर्ण सृष्टि का पालनकर्ता हूं,मैं सबसे श्रेष्ठ हूं। ब्रह्मा एवं विष्णु में इस तरह का विवाद चल ही रहा था कि उसी समय उन दोनों के मध्य एक परम् ज्योतिर्मय विशाल ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ,जो आकाश से पाताल तक फैला हुआ प्रतीत हो रहा था। इस ज्योतिर्लिंग को अचानक प्रकट हुआ देखकर ब्रह्मा एवं विष्णु दोनों ही अत्यन्त विस्मय में पड़ गए कि यह अद्भुत एवं अदृश्य शक्ति कहां से प्रकट हो गयी।
जब ब्रह्मा एवं विष्णु को इस आश्चर्यजनक प्रकाश से युक्त ज्योतिर्लिंग के बारे में कुछ पता नहीं चला और न ही इस प्रकाश का कोई आदि और अंत दिखाई दिया तो दोनों देवताओं ने यह निर्णय लिया कि यदि हम दोनों इस अद्भुत ज्योतिर्लिंग के छोर का पता लगाने हेतु दो विपरीत दिशाओं को प्रस्थान करें,जिससे इस रहस्यमय प्रकाश का पता चल सके एवं हम दोनों में से जो पहले पता लगाकर चला आयेगा,वहीं हम दोनों में श्रेष्ठ होगा। दोनों दो विपरीत दिशाओं में चल पड़े और की वर्षों तक चलने के पश्चात भी उस रहस्यमयी वस्तु के आदि और अंत का पता नहीं चला तो अपने स्थान पर हार कर वापस आ गये। विष्णु जी ने तो स्पष्ट कह दिया कि हमें इसका कोई आदि एवं अंत दिखाई नहीं देता है, किंतु ब्रह्मा जी झूठ बोल गए। ब्रह्मा ने कहा कि मैं इसके छोर तक जाकर वापस आया हूं। अपनी गवाही में ब्रह्मा ने केतकी नामक पुष्प के वृक्ष को भी शामिल कर लिया और केतकी ने भी ब्रह्मा के बात की पुष्टि कर दी। ब्रह्मा के असत्य एवं केतकी की झूठी गवाही को देखकर आकाशवाणी हुई कि ब्रह्मा एवं केतकी दोनों झूठ बोल रहे हैं।आकाशवाणी को सुनकर ब्रह्मा अत्यन्त लज्जित हुए । तत्क्षण ही भगवान शिव भी त्रिशूल धारण किए हूए प्रकट होकर ब्रह्मा एवं विष्णु के मध्य खड़े हो गए। यह देखकर ब्रह्मा एवं विष्णु दोनों नतमस्तक होकर शिव की स्तुति करने लगे। ब्रह्मा एवं विष्णु के याचना भरे शब्दों को सुनकर शिव ने कहा कि इस सृष्टि का आदि कारण रूप, उत्पत्तिकर्ता एवं स्वामी मैं ही हूं। तुम दोनों को मैंने ही उत्पन्न किया है। तुम दोनों मुझसे भिन्न नहीं हो। तुम दोनों मेरे ही स्वरूप है। मैं ही सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं विनाश के लिए अलग - अलग ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश का रूप धारण करता हूं।
इसके पश्चात शिव ने पुन: कहा कि ब्रह्मा को अपने असत्य के अपराध के कारण दण्ड भुगतना पड़ेगा एवं केतकी झूठी गवाही के कारण मेरी पूजा में स्थान नहीं पायेगी। शिव के इन वचनों को सुनकर ब्रह्मा एवं विष्णु दोनों ने अपनी भूल पर खेद प्रकट करते हुए भगवान शिव से क्षमा मांगी। दोनों का विवाद समाप्त कर भगवान शिव पुन: अंतर्धान हो गए। चूंकि यहां शिव सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए थे, अत: तभी से शिवलिंग की पूजा का प्रचलन प्रारम्भ हो गया। डाॅ०गणेशकुमार पाठक
पूर्व प्राचार्य एवं पूर्व शैक्षिक निदेशक,
जननायक चन्द्रशेखर विश्वविद्यालय, बलिया,उ०प्र०