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    Adhyatma,Bhakti:अध्यात्म और भक्ति:डॉ जयप्रकाश तिवारी



    बलिया/लखनऊ, उत्तर प्रदेश
    इनपुट: हिमांशु शेखर 
    बलिया:--"अध्यात्म" और "भक्ति*", ये दोनों ऐसी दार्शनिक अवधारणाएं हैं जिनपर बहुत कुछ लिखा और कहा गया है तथा इसे प्राप्त करने लिए शास्त्रों में निरंतर प्रोत्साहित किया गया है, और आज भी यह कार्य सांस्कृतिक, धार्मिक गतिविधियों द्वारा निरंतर किया जा रहा है। अब यहां प्रश्न है "अध्यात्म" और "भक्ति" है क्या? आइए इसे समझने का प्रयास करते हैं, अध्यात्म = (अधि+आत्मन) आत्मा के अत्यधिक निकटस्थ होना, आत्मा के बारे में जानना इस प्रकार "आत्मा" का सम्यक अध्ययन ही "*अध्यात्म*" है। *भक्ति* शब्द संस्कृत भाषा के भज धातु से बना है, जिसका अर्थ है भजन या स्तुति करना। इस प्रकार अपने प्रियतम की स्तुति और महिमा गान, भजन, कीर्तन ही "भक्ति" है। भक्ति में सेवक की अपने स्वामी से कुछ निवेदन, मांग, अपेक्षा होती है। भक्ति के क्षेत्र में नवधा भक्ति का अपना विशिष्ट स्थान है। "अध्यात्म* और "भक्ति" ये दोनों ही परिकल्पनाएं परमतत्त्व को सम्यक रूप से जानने और प्राप्ति के शास्त्रीय मार्ग हैं। *किसको जानना है? परमतत्व क्या है? सनातन संस्कृति में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यही है*।

             सनातनी ऋषियों ने अपने - अपने सदगुरुओं से परमतत्व के विषय में कुछ ऐसे ही इस प्रश्न को पूछा है - *"कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति"* (मुण्डक 1.1.3)। अर्थात् हे भगवन ! वह जानने योग्य वस्तु क्या है? किसको (किस तत्त्व को) जान लिए जाने पर सबकुछ जान लिया जाता है? सदगुरु ने उत्तर दिया - *"ब्राह्मवेत्ताओं ने कहा है कि दो विद्याएं जानने योग्य हैं, एक पराविद्या और दूसरी अपरा विद्या"* (मुण्डक 1.1.4)। शास्त्रीय ज्ञान, वेद शास्त्रों में लिखित या संचित ज्ञान "अपरा ज्ञान", अपरा विद्या है, और उस ज्ञान में, उन शब्दों में अन्तर्भूत अक्षर परमात्मा का ज्ञान "पराज्ञान", पराविद्या है। इस प्रकार चारों वेद, वेदांग, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष आदि का शब्द ज्ञान "अपरा ज्ञान" है। किंतु उसमें वर्णित तत्त्वज्ञान, परमात्मज्ञान "पराज्ञान", "पराविद्या" है। अर्थात शब्द ज्ञान, कर्मकाण्ड, भक्ति ये अपरा है, यह साधन है और उसमें निहित तत्वज्ञान ही पराज्ञान, परमज्ञान है। "भक्ति" क्रिया युक्त कर्मकाण्ड है, अतः अपरा ज्ञान है। "अध्यात्म" अध्ययन है, यह ज्ञान से प्राप्त है, कर्मकाण्ड से नहीं। यह ज्ञान है, शुद्ध ज्ञान, विशुद्ध ज्ञान, यह आत्मबोध है, शुद्ध, बुद्ध, आत्मा का अध्ययन है। *इसलिए वह परमज्ञान है, अध्यात्म है।* 

    भक्ति से चित्त निर्मल होता है, जिसकी आराधना, उपासना साधक कर रहा है, इस निर्मल चित्त में अब उसके (आराध्य के) बारे में तत्त्वतः जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। तदनंतर यह इच्छा क्रमश: बलवती होकर जब तीव्र मुमुक्षा बन जाती है तब साधक सद्गुरु की खोज करता है ... इस तत्त्व को विधिवत, सम्पूर्ण रूप में, समग्रता से जानने के लिए।

             दूसरे शब्दों में "परा" तक की यात्रा के लिए भक्ति (अपरा) साधन है, और "अध्यात्म साध्य" है। भक्ति एक कर्मकाण्ड है, क्रिया है और प्रत्येक क्रिया का कोई न कोई तदनुरूप पुण्यफल होता है। उस फल से लौकिक धन, धान्य, ऐश्वर्य, संतति ... और अधिक से अधिक लोक (गोलोक, ब्रह्मलोक, सत्यलोक, विष्णुलोक, साकेत लोक, कैलाश लोक ..) की प्राप्ति ही हो सकती है। भक्ति में भक्त भी "सुख दुख", "राग द्वेष" को अनुभुत करता है, इस भावों से मुक्त नहीं हो पाता। भोक्ता के लिए, वांछित वस्तु की प्राप्ति के लिए, कर्तृत्व-भाव, भोग-भाव की आवश्यकता है। आत्मज्ञान के बिना कर्ता-भोक्ता भाव से मुक्ति नहीं मिलती, राग-विराग से छुटकारा नहीं होता। छांदोग्य उपनिषद के अध्याय सात में नारद और सनतकुमार का एक रोचक प्रसंग है। वहां नारद जी कहते है कि हे महात्मन! मैं ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, इतिहास पुराण, पंचम वेद, व्याकरण, कल्प, निरुक्त, गणित, शिक्षा, ज्योतिष, धनुर्विद्या, तर्कशास्त्र, नीति शास्त्र, संगीत आदि विधियों को जंग हूं किंतु मैं शास्त्रज्ञ हूं, आत्मज्ञ नहीं हूं। मुझे शोक और मोह घेरता रहता है। हे भगवन! कृपा करके मुझे इस शोक से पार कीजिए (7.1.3)।
                  
    जी, सच बात यही है कि कोई शास्त्रज्ञ हो या कर्मकांडी भक्त, उसे पुण्यफल के उपभोग के बाद पुनः इस धराधाम पर, भवसागर में आना ही होगा। उसे पुनर्जन्म से मुक्ति नहीं मिलती। अब प्रश्न है मुक्ति क्यों नहीं मिलती? क्योंकि ये समस्त कर्मकाण्ड, यज्ञकर्म या भक्ति किसी न किसी काल में, देश में किसी न किसी उद्देश्य से, किसी न किसी फल प्राप्ति के लिए किया गया है। काल की अपनी सीमा है, देश की अपनी सीमा है और सृष्टि तथा आराध्य ईश्वर (अपर ब्रह्म) की भी एक अपनी सीमा है, अपना एक काल खण्ड है, चाहे जितना भी सुदीर्घ, लंबा, विराट क्यों न हो। ईश्वर से "भक्ति" भक्त को सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य, सार्ष्टि और सायुज्य, इन पांच दिव्य पद की प्राप्ति संभाव्य कराती है। इसे ही भक्ति में "मुक्ति" भी कहा जाता है। किंतु ध्यान रहे ईश्वर, "कारण ब्रह्म" है, "अपर ब्रह्म" है; वह "परब्रह्म" नहीं है। मुक्ति के सायुज्य सहित पांचों पद भी "सबीज" है और जब सबीज है तो उस बीज का अंकुरण भी होगा। कर्मफल का यह अंकुरण ही पुनर्जन्म है। सबीज ईश्वर भी, (वेदांत की शब्दावली में इसे हिरण्यगर्भ कहा जाता है) सबीज साधक जीव के साथ ही "प्रलय" या "अव्यक्त" दशा को भी प्राप्त होता है, प्रलय के समय यह कारण ब्रह्म "ईश्वर" भी "निर्बीज", "परब्रह्म" या "निर्गुण ब्रह्म" में विलीन हो जाएगा। और सृष्टि के समय सभी चराचर जीव संचित पुण्यफल के साथ अलग-अलग योनियों में पुनः जन्म लेंगे। इस प्रकार सृष्टि और प्रलय का चक्र चलता रहता है।

                   किंतु, परब्रह्म के साधक का पुनर्जन्म नहीं होता क्योंकि वह तत्त्वज्ञान या परमज्ञान, कर्म जनित या क्रिया जनित कोई परिणाम नहीं है। ज्ञान में जब क्रिया ही नहीं है तो उसका शुभ या अशुभ कोई फल भी नहीं, जिसके भोग के लिए पुनर्जन्म लेना पड़े। यह "कैवल्य मुक्ति" है, यही "सद्य: मुक्ति" भी है। यह मृत्यु में बाद में शरीर छूटने पर नहीं, शरीर रहते हुए, इसी जीवनकाल में प्राप्तव्य है। कैवल्य मुक्ति के लिए साधक को वेदांत (जिसे उपनिषद भी कहा जाता है) की शरण में जाना पड़ेगा। 

              इसे एक प्रसंग द्वारा यथोचित ढंग से समझा जा सकता है। यह प्रसंग मुक्तिका उपनिषद में आया है। भगवान राम के अनन्य भक्त हनुमान जी भगवान राम से ही प्रश्न करते हैं - हे भगवान! मैं आपके स्वरूप को जनता हूं, आप सच्चिदानंद परमात्मा हो जो मानव के विग्रह में आए हो। हे भगवन हमें भी मुक्ति का मार्ग बताइए, ऐसी मेरे मन में अभिलाषा हो रही है - "*भक्तया सुश्रुषया रामं प्रपच्छ मारुति। राम त्वं परमात्मसि सच्चिदानंद विग्रह।। (1.4) *इदानी त्वां रघुश्रेष्ठ प्रणमानि मुहूर्मुह:। त्वद्रूपं ज्ञातुं इच्छामि तत्त्वतो राम मुक्तये (1.5)।।*" भगवान राम ने उत्तर दिया - हनुमान! कैवल्य मुक्ति ही परमार्थ मुक्ति है, इसको ही जानना चाहिए - "*इयं कैवल्य मुक्ति मुक्ति: तु केनोपायेन सिद्धति। मांडूक्यं एकं केव मुमुक्षुणाम विमुक्तये*।।: मुमुक्षुओं के केवल मांडूक्य उपनिषद का ज्ञान ही मुक्ति के लिए प्रयाप्त है।

             अब मन में उत्कंठा, जिज्ञासा होती है कि "मांडूक्य उपनिषद" क्या है? इसमें ऐसा क्या कहा गया है जिसके लिए भगवान राम ने हनुमान जी से कहा कि कैवल्य के लिए मांडूक्य ज्ञान ही पर्याप्त है? मांडूक्य अपने कलेवर में सबसे छोटा उपनिषद है, इसमें मात्र 12 मंत्र है और गूढ़ इतने कि इसकी व्याख्या में श्री गौडपादाचार्य जी महाराज ने 250 से अधिक कारिकाएं लिखीं। आद्यशंकराचार्य जी महाभाग ने इन कारिकाओं पर अपना सुप्रसिद्ध भाष्य लिखा और आनन्द गिरि जी ने उस भाष्य पर टीका लिखी। टीका पर अनेक टिप्पणियां लिखी गई और आज भी मांडूक्य पर शोधकार्य निरंतर हो रहा है।

            मांडूक्य ने दो बातें स्पष्ट रूप से घोषित किया - (i) "*अयमात्मा ब्रह्म*" अर्थात यह आत्मा ही ब्रह्म है। (ii) "*अयमात्मा चतुष्पात"* अर्थात इस आत्म के चार पाद हैं। (यहां ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि जैसे गाय के चार पैर होते हैं, नहीं यह वैसे हैं जैसे एक सिक्के के दो पार्श्व या लूडो खेल में प्रयुक्त एक घन के छ: पार्श्व।) इन चारों पादों को नाम दिया *जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और तुरीय*। ये चार अवस्थाएं है, उस एक की ही।

    प्रथम तीन पाद जीवात्मा के हैं। जागृत अवस्था में वही अपनी इंद्रियों से जागरूक वस्तुओं का भोग करता है। भोग के लिए मांडूक्य ने "एकांविंशति मुख:", 19 मुखों का उल्लेख किया है - {5 कर्मेंद्रियां + 5 ज्ञानेंद्रियां + 5 प्राण + अंतःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार)}। जागृत दशा में जीवात्मा बाह्यमुखी होकर (व्यष्टि रूप नर) इस जगत का भोग करता है और परमात्मा (समष्टि रूप रूप में विश्वात्मा (वैश्वानर) बनकर भोग करता है। स्वप्न दशा में ये इंद्रियां अंतर्मुखी होकर वहीं जगत में देखी हुई वस्तुओं का सूक्ष्म भोग संस्कार रूप में करती है। मांडूक्य ने इसे तेजस नाम दिया है। और सुषुप्ति दशा में ये सारी इंद्रियां विश्राम, शयन मुद्रा में होती हैं अतएव जीवात्मा को कुछ आभास या बोध नहीं होता। केवल प्राण तत्व ही क्रियाशील रहता है जिससे शरीर धर्म का निर्वहन हो सके। यहां अब 19 मुख नहीं है, केवल एक मुख है "चेतो मुख:"। मांडूक्य ने तीनों दशाओं का चेतना की दृष्टि से क्रमश: तीन नाम दिया वहिष्प्रज्ञ:, अंतः अन्तःप्रज्ञ और घनप्रज्ञ। यह घनप्रज्ञ "प्रज्ञानघन" का निकटवर्ती होता है और इंद्रियां आक्रियदशा में होती है, अतः वह सुख और शांति का अनुभव करता है। यही प्रज्ञानघन सूक्ष्मरूप में ईश्वर और सर्वेश्वर है। वह चेतोमुख: से पुनः नई सृष्टि करता है और बारम्बार जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति की यात्रा करता है। इस प्रकार जीवात्मा प्रतिदिन सृष्टि और प्रलय से गुजराती है। अध्यात्म की शब्दावली में निद्रा को "लघुमृत्यु / सूक्ष्ममृत्यु) भी कहा जाता है। जागृत अवस्था में प्रतिदिन शुभ अशुभ क्रिया का फल ही सुषुप्तावस्थास्थ में हम भोगते है। अपराधी की दशा में हमें निद्रा या सुख नहीं, अनिद्रा और बेचैनी होती है। दीर्घरूप में यह जीवन काल की हमारी दशा है। सुख, शान्ति का बोध प्रज्ञानघन के कारण हुआ, इसलिए हम भक्त बनकर प्रज्ञानघन ईश्वर की आराधना करते हैं और वांछित वस्तुओं  की मांग करते हैं। जीवन मृत्यु का खेल चलता है, इससे मुक्ति नहीं मिलती।

               मुक्ति तब मिलेगी जब हम चौथे पाद को भी जान लें। मान लेंगे नहीं, जान लेंगे। इसका साक्षात्कार कर लें। यह प्रज्ञा या बुद्धि जनित नहीं है, इसलिए वहिष्प्रज्ञ, अन्तःप्रज्ञ या प्रज्ञानघन की पहुंच यहां तक नहीं है। चौथा पाद विशुद्ध "ज्ञ" है, विशुद्ध ज्ञान है, निर्मल प्रकाश है, यही "तुरीय" है। प्रथम तीनों पाद कर्म प्रधान है, "यही भक्ति दशा है" किंतु चौथे में कर्म नहीं है। यह विशुद्ध ज्ञान है और ज्ञान से ही ज्ञान को जाना जा सकता है। केवल एक आत्म तत्व ही परम और चरम है। इस दृश्यमान अनन्त में वही "एकं अद्वितीयम" ही आभासित हो रहा है, दृश्यमान हो रहा है।

           आइए अब चलते है, मुण्डक के साधक के प्रश्न और सदगुरु के ज्ञानमय उपदेश के निष्कर्ष पर। अंत में साधका शिष्य ने अनुभूत किया कि यह "आत्मा" ही परमतत्व है*। सर्वत्र दसोदिक यही परिव्यप्त है। सुनिए और अनुभव कीजिए - "*स यो ह तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति... तरति शोकं तरति पाप्मानम 
    .... " (मुण्डक 3.2.9)। यह आत्मा प्रवचन, बुद्धि या कर्म से लभ्य नहीं है - "*नायमात्मा प्रवचन लभ्यो न मेधया न बहना श्रुतेन..."* (मुण्डक 3.2.3)। यह तो केवल ज्ञान से ही प्राप्त हो सकता है, न ज्ञान की दशा का, ब्रह्मविद्त का उद्गार देखिए - "*ब्रह्मवेदम अमृतं पुरस्ताद ब्रह्म पश्चात् ब्रह्म दक्षिणत: च उतारेण। अधश्च ऊर्ध्वम च प्रसृतम ब्रह्मवेदम विश्वम इदं वरिष्ठम।।*" (मुण्डक 2.2.11) ऐसा क्यों होता है? क्योंकि अब सर्वत्र वह आत्मदर्शन करने लगता है। पहले गुरु सत्ता और शास्त्र जब - जब कहते है - "तत्त्वमसि" (तत+ त्वं +असि), अरे, तुम वही हो जिसकी आराधना कर रहो। तुम वही हो जिसको ढूंढ रहे हो, तब बात समझ में नहीं आती। समझ में कब आती है? जब श्रवण का मनन, मंथन और निद्धयासन करते हैं। निद्धयासन की प्रगाढ़ अवस्था में ही समाधिस्थ हो जाते हैं और उसका साक्षात्कार कर लेते हैं। अब साधक स्वयं ही बोल उठता है - "*अहं ब्रह्मास्मि"*। यह साक्षात्कार भौतिक इंद्रियों से संभव नहीं है, इसके लिए दिव्य ज्ञानेंद्रियों, दिव्य चक्षु की अवश्य है। अर्जुन भी कहां समझ पाया था, जब भगवान श्रीकृष्ण ने दिव्यचक्षु दिया तभी देख पाया।

          अब मुण्डक के साधक जिज्ञासु के इस शिष्य के इस प्रश्न का उत्तर मिल गया कि वह क्या है, जिसको जान लेने पर सबकुछ जाना पहचाना सा लगता है? वह आत्म तत्व है, उसे ही जान लेने पर सबकुछ जाना पहचाना सा लगने लगता है।

    निष्कर्ष:
    अब वह साधक या हम और आप "अध्यात्म और भक्ति का संबंध" और "अध्यात्म और भक्ति में भेद" को भलीभांति समझ जाते है - *"देह बुद्धया तु दासो अहं, जीव बुद्धया त्वादंशकम। आत्म बुद्धया त्व एव अहं मे निश्चित मति:"*। देह भाव से देखने पर हमारा आपका संबंध सेवक और स्वामी का है, जीव भाव से मारा और आपका संबंध यह है कि  मैं लघु, अणु हूं और आप विशाल, विराट हैं, किंतु मैं हूँ आपका ही अंश। आप अंशी हैं और मैं अंश हूं। किंतु आत्म भाव से, ज्ञान दृष्टि से, मैं वही हूं जो आप हैं।  अतः हमारे आपके लिए उचित यही है कि "*दृष्टि ज्ञानमयी कृत्वा पश्येद ब्रह्ममय जगत"*। अब हमे भली प्रकार बोध हो गया है "ईशावास्य इदं सर्वम", "सर्वम खल्विदंब्रह्म"।

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