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    शिवत्व में समायी हुई हमारी आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक वैज्ञानिक सोच एवं परंपराएं : राजेश कुमार सिंह "श्रेयस"( लखनऊ )



    उत्तर प्रदेश बलिया 
    इनपुट: हिमांशु शेखर 
    बलिया उत्तरप्रदेश:---अभी आज मैं  भगवान शिव और उनके अभिषेक पर ही चर्चा करूंगा। मैं यह भी बताना चाहूंगा ,कि भगवान शिव के आराधना का माह श्रावण, हमारी आस्था से सिर्फ नहीं जुड़ा है बल्कि  वैज्ञानिकता से भी जुड़ा हुआ है। इस बात पर बिलकुल ही संसय नहीं होना  चाहिए। 

      मैंने बडे ही आस्था के साथ इस आध्यात्मिक साधना को इस माह रुद्राभिषेक के समय किया। मैंने व्यक्तिगत रूप से जो महसूस किया वह यह है कि तनाव भरे जीवन में रुद्राभिषेक के तीन या चार घंटे मेरे लिए सांसारिक जन्जालों ( तनाव ) से हटकर, पूर्ण ध्यान योग की मुद्रा रही। ऐसा सिर्फ मेरे साथ नहीं हुआ बल्कि मेरी पत्नी के साथ भी हुआ। यह मेरा व्यक्तिगत एवं अद्भुत अनुभव है ल 
        हमारे ऋषि जो स्वयं में रिसर्चर होते थे, प्रत्येक अनुष्ठान तीज़ त्यौहारों के नीति नियमो निश्चित करने के पीछे उनका एक वैज्ञानिक आधार होता था। क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि हमारा जनमानस, धर्म के प्रति अत्यंत गंभीर होता है। विशेष आस्था के साथ धर्म से जुड़े व्यक्ति का प्रयास होता है कि किसी भी स्थिति में धर्म से विमुख न हुआ जाए।

     यदि हम किसी भी गंभीर तथ्यपरक , लोकोपयोगी नीति नियम को धर्म से आवद्ध करते हैं तो व्यक्ति उसको मानने के लिए न केवल विवश होता है, बल्कि भरपूर आस्था और विश्वास के साथ उसका पालन करता है और उसको पूर्ण भी करता है।
    फाइल फोटोग्राफी:राजेश कुमार सिंह "श्रेयस"( लखनऊ )

       आइये जानते हैं कि आखिर धर्म क्या है? तो इसको इस बात को इस उदाहरण से समझते हैं।

    " यदि कोई व्यक्ति गांव घर में अपने बड़े भाई के साथ अभद्र व्यवहार करता है तो सामान्यतः लोग बोलते हैं कि आपका क्या यही धर्म था कि आपने अपने बड़े भाई के साथ इस तरह का व्यवहार किया "।

      यानी धर्म एक ऐसा सिद्ध,सैद्धांतिक, लोकोपयोगी नीति नियम कि है,  जिसका परिपालन करना, हमें बौद्धिक आध्यात्मिक शारीरिक एवं मानसिक रूप से  शक्ति प्रदान  करता है। 

     हमारे धर्मशास्त्र में में तुलसी की पूजा करने का प्रावधान है।  हमारे ऋषियों जो एक प्रकार के रिसचर्स थे उनको यह पता था कि तुलसी एंटीबैक्टीरियल एंटीमलेरियल एंटी फंगल औषधि है और इसे हमारे प्रत्येक घरों तक पहुंचनी चाहिए ।  यह पंच अमृत का एक विशेष अवयव है। आस्था और विश्वास के रूप में यह हमारी पूज्य मां सदृश्यता तुलसी मां है.। अतः अपनी इस  माँ को हमारे घर में होना चाहिए। इनका स्थान बड़े ही आदर भाव के साथ प्रत्येक घर में होना चाहिए। न सिर्फ रखना है बल्कि  सुरक्षित एवं सिंचित रखना है, क्योंकि ये हमारी माँ हैं।,ऐसी हमारी आस्था है।  और यदि माँ है तो ये हमारी हर प्रकार से रक्षा करेगी हमें शारीरिक रूप से मानसिक रूप से और रोगों से लड़ने की क्षमता देगी। 

     ऋषियों को ज्ञात था कि जिस भी  बहाने भोजन में तुलसी दल पड़ेगा वह भोजन अमृत सदृश्य हो जाएगा।  यहां तक की जीवन की अंतिम यात्रा के समय भी मुंह में तुलसी दल और गंगाजल इसलिए डालते हैं कि हो सकता है की अंतिम समय में भी यह कारगर औषधि के रूप में हमारी रक्षा कर दे। इसे मात्र एक उदाहरण के रूप में हम समझ सकते हैं कि हम अपने संस्कृति, संस्कार, तीज- त्यौहार,आस्था के के द्वारा कितने समृद्ध होते है। 

     इसी प्रकार गंगा जिन्हें हम मां कहते हैं, यह स्वयं में अमृत जल  है। इनको संरक्षित रखने का इनको सुरक्षित रखने का इनको लंबे समय तक अपने पास रखने का हमें प्रत्येक उपक्रम करना चाहिए। वैज्ञानिक प्रयोग से सिद्ध हो चुका है। गंगाजल कितने भी दिन रखा जाए दूषित नहीं होता है। " गंगा जले किटाणवः न जायन्ते " ऐसा हमारे धर्म शास्त्रों में लिखा है। हमारे जन्म से लेकर जीवन के अंतिम पल तक गंगा हमारे जीवन से जुड़ी हुई है ।  यही कारण है कि यह हमारे आस्था से जुड़ा हुआ विषय बन गयीं है। गंगा मां भी, मां सदृश्य हमारी रक्षा करती है। 

     जितने भी वनस्पति वृक्ष है सभी लगभग सभी हमारे जीवन के लिए उपयोगी है। हमें भोजन,पोषण, के साथ-साथ अन्य सुविधाएं  प्रदान करते हैं । इन वनस्पति पेड़ पौधों में विशेष महत्व उन देव वृक्षो का है,जिनको हमारे धर्म शास्त्रों में बड़ा पवित्र एवं पूज्य स्थान दिया गया है । हम यदि उनके  गुणधर्म को व्यावहारिक रूप या वैज्ञानिक रूप से हम विलोकित करते हैं तो पाते हैं कि यह सभी हमारी रक्षा करने के लिए ही इस धरती पर उगते हैं, पल्लवित और पुष्पित होते है। हमारे ऋषि महात्माओं ने उनके एक-एक गुण को भली भांति परख लिया था। 

     उदाहरण के तौर पर नीम,पीपल,बरगद,पाकड़ बेल, आम्र, आ वला आदि। विभिन्न संक्रामक रोगों में नीम का उपयोग है। चेचक जैसे विशेष संक्रमण में, त्वचा संबंधी रोगों में, इसका उपयोग हम करते आए हैं। इसी तरह का उदर रोगों में बेल का उपयोग है। आँवला मैं प्रचुर मात्रा में विटामिन सी है जो की रोग प्रतिरोधक के रूप में कार्य करता है। कार्तिक मास में इसकी पूजा होती है। यानि जाड़े के समय में जब हमारे शरीर में संक्रमण का खतरा ज्यादा बढ़ता है, शीत आदि के प्रकोप से हमें  शारीरिक रूप परेशानी होने की संभावना बढ़ती है, उसे समय यह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है और हमारे धर्म शास्त्रों में इसके उपयोग करने की बात कही गई है। जब हमारे आस पास विशालता के साथ खड़े पीपल, बरगद, पाकड़ के वृक्ष न जाने कितने पशु पक्षियों के आश्रय होते है बल्कि ये हर प्रकार से हमारे लिए स्वास्थ्य के लिए  उपयोगी होते है। 

     हमारे धर्म शास्त्रों में इस तीनों वर्षों के रोपण का बड़ा महत्व है। इन तीनों का एकाकार होना, या एक साथ रोपण करने का प्रावधान बताया गया है। इन्हीं विशेष कर्म से हमारे धर्मशास्त्र में इसे हरी और हर  स्वरूप मानते हुए हरिशंकरी नाम दिया गया है। हमारा धर्म शास्त्र इनको संरक्षित करने का निर्देश देता है
     इस उदाहरण से भी आप समझ सकते हैं कि हमारी आस्था और संस्कृति अपनी धार्मिक मान्यताओं के साथ किस प्रकार से हमारे तन मन की सुरक्षा करती है।

     इसी प्रकार हवन में उपयोग की जाने वाली हवन सामग्रियों में प्रयुक्त होने वाली औषधि -वनस्पतियों एवं अन्य अवयवों जैसे घी,अगर, चंदन धूप, तिल, जटा मासी, जौ आदि जब हवन के रूप में अग्नि प्रज्वालित की जाती है तो इसका मॉलेक्युलर डिवीजन होता है और यह वातावरण में फ़ैलकर को सिर्फ वातावरण को शुद्ध करती है, बल्कि स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से समूचे जनमानस को लाभ प्रदान करती है।

    हवन की आस्था की दृष्टिकोण से भी हमारे लिए यह पूज्य है तो औषधि के रूप में भी लाभप्रद है। 

     शादी विवाह के अवसर पर दूल्हे- दुल्हन को हल्दी लगाने - हल्दी लेपन का प्रविधान है, यह हमारे रीति रिवाज, धर्म आस्था एवं संस्कारों  का अंग है। इस विशेष संस्कार के परिपालन के पीछे भी एक वैज्ञानिकता से भरा कारण छिपा है। हमें यह जानना चाहिए कि हल्दी विष औषधि है, एंटीसेप्टिक एंटीबैक्टीरियल है। शादी से पूर्व दूल्हे को किसी प्रकार की बीमारी न हो, किसी प्रकार का संक्रमण न हो, वह सुरक्षित रहे।  इस बड़े उद्देश्य है साथ ही साथ यह कि हल्दी दूल्हे दुल्हन  त्वचा को सुंदर कांति युक्त, आकर्षक बनाती है। आजकल तमाम कॉस्मेटिक पदार्थों को बनाने वाली  कंपनियां इसी हल्दी का उपयोग कर उसे टर्मरिक बॉडी क्रीम नाम देकर बेचती है। इसी से आप समझ सकते हैं कि हमारी संस्कृति और हमारी प्राचीन व्यवस्था, कितनी उच्च  कोटि की वैज्ञानिकता से भरी हुई रही है।

     हमारा ज्योतिष शास्त्र, हमारे ऋषि रिसर्चर जो कि जंगलों में साधारण वस्त्र के साथ,  बांस से  स्वनिर्मित वेधशालाओं, सूर्य घड़ी आदि के माध्यम से सूर्य की दूरी चंद्रमा की स्थिति की जो गणना कर गए हैं वही गणना आज हम अति आधुनिक ऑटोमेटिक टेलिस्कोप से हम कर पाते हैं। क्या यह रहस्य नहीं है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र  यह बताने में सफल होता है किआज से पच्चास या सौ या दो सौ वर्ष बाद कितने बज कर कितने मिनट पर सूर्योदय होगा कब सूर्यास्त होगा,कब सूर्य ग्रहण होगा, कब चंद्र ग्रहण होगा, तब ग्रहों की स्थिति कैसी रहेगी आदि। 
    वर्ष, माह और दिन कैसे बदलते हैं ऋतुएं में कैसे बदलतीं है, उसकी गणना अपने ज्योतिष से करता है। वही गणना बड़े-बड़े वैज्ञानिक अपने यंत्रों द्वारा करते हैं। इसमें रंच भर का अंतर नहीं आता है। 

     यात्राएं,यात्रा संबंधी दिशाओं का ज्ञान , मौसम का पूर्वानुमान तथा इस विषय में निर्देश आदि सब कुछ विधिवत हमारे धर्म शास्त्रों में वर्णित है। 

    फिर मैं यही बात कहूंगा कि हम अपनी आस्था संस्कृति और संस्कारों में विश्वास करते हैं इसलिए हम उसको मानते हैं। और जब हम यह मान रहे होते हैं उसे वक्त हम किसी ने किसी रूप में स्वयं का भला कर रहे होते हैं। 
     उदाहरण स्वरूप ले ले तो भगवान विष्णु शयन की मुद्रा में जब जाते हैं तो हमारे धर्म शास्त्रों का यह निर्देश होता है कि अब भगवान सो गए हैं और सारी यात्राएं स्थगित कर दी जाए। जो जहां कहीं भी है स्थिर रहे अपने घरों में रहे, चार महीने तक दुर्गम पर्वतीय तीर्थ की किसी प्रकार की कोई यात्रा नहीं होगी।

        हम सभी को पता है कि यह मौसम बरसात का होता है इसमें हिमस्खलन भूस्खलन की स्थिति बनती है और पर्वतों पर जाना, कितना खतरनाक साबित हो सकता है यह हमारे ऋषि रिसर्चर विद्वानों को पता था, अतः उन्होंने इसे भी आस्था के साथ आबद्ध कर दिया। अब हम प्रकृति के विपरीत जाकर उन नियमों के विरुद्ध जाकर यात्राएं करते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि  कभी-कभी हमें बड़ी-बड़ी दर्दनाक घटनाओं से गुजरना पड़ता है जो अक्सर हम सुनते हैं।

     ऋतुओं के हिसाब से,महीने के हिसाब से भोजन पाने की व्यवस्था है , क्या ग्रहण किया जाए,  क्या ग्रहण न  जाए इसकी पूर्ण जानकारी हमारी आस्था संस्कृति और संस्कारों में समायी हुई है।

     सावन के माह में पहले से कहावत थी, सावन शाक, न भादों दही, क्वार दूध नहीं कार्तिक मही । यानी सावन मास में हमें सात्विक भोजन ही करना चाहिए क्योंकि सब्जियों पर कीड़े  आ जाते हैं, संक्रमित होने का खतरा बढ़ जाता है,  अन्य तामसी भोजन भी विकृत हो जाते है। हमारे धर्म शास्त्रों में सावन के मास में सात्विक रूप से संत भाव में रहकर सिर्फ और सिर्फ सादा भोजन करने का प्रावधान है। शाकाहार पर बल दिया गया है। निरामिष भोजन को  पूर्ण रूप वर्जित कर दिया गया है।
     ये तो कुछ एक उदाहरण थे, जिसको मैंने आपके सामने रखा। ऐसे अनेको उदाहरणों से हमारी धर्म संस्कृति और संस्कार भरे हुए हैं।
        
        इस माह को उत्सव का माह भी कहते हैं महिलाओं में तीज त्यौहार, एवं प्रकृति के साथ अधिक से अधिक समय बिताने की परंपरा है। झूला पर झूले तीज के कजरी आदि गीत गाकर आनंदित होने का समय है।

       भगवान शिव स्वयं कैलाश पर निवास करते हैं, आप हमारे आराध्य है और आप प्रकृति के सबसे नजदीक रहने वाले देवता है, आपके सिर में गंगा है, यह गंगा आपके जटाओं से निकलते हुए पृथ्वी लोक के प्राणियों का कल्याण करती है। यानी एक रूप में आप स्वयं  इस मृत्यु लोक में प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हुए हम भक्तो कल्याण करते  हैं । आप सत्य है आप शिव है आप सुंदर है यह हमारे सत्यम शिवम सुंदरम के उद्घोष मन्त्र में समाहित है।

        अपनी इन विशेष वैज्ञानिकता परख बातों के साथ-साथ में पुनः भगवान शिव की चर्चा करता हूं श्रावण मास की चर्चा करता हूं -

      मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम,  लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व  गुरुश्रेष्ठ ,गौर वदन वाले, करुणा और दया के अवतार,नश्वर संसार के एकमात्र सार तत्व,  विष और विकृति से भरे संसार को भुजंग स्वरूप अंगीकार करने वाले, स्वयं हलाहल पीकर संसार को अभयता प्रदान करने वाले, उलझें  केश लट सदृश्य झंझावातो  के मध्य चंद्रमा की शीतलता और गंगा की पवित्रता को बनाए रखने वाले, आशुतोष भगवान शिव जिनका अभिषेक स्वयं गंगा करती है, इस परंपरा को पूरे भक्ति भाव एवं मनोयोग से भारतीय संस्कृति निर्वहन करती है।
      लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व भगवान श्री राम ने  अपने आराध्य  भगवान महादेव का पार्थिव लिंग बनाकर पूजा अर्चना एवं अभिषेक किया।  मृदा से स्वनिर्मित शिवलिंग पर रुद्राभिषेक करने की परंपरा आज भी विद्यमान है।

        मेरे परम आदरणीय श्री गुरु जी ने  भगवान बाबा महादेव के पार्थिव लिंग का अभिषेक मेरे लखनऊ स्थित निज निवास मे कराया। बाबा का अभिषेक मन को शांति प्रदान करता है। परिवार प्रथम के भाव में रहने की प्रेरणा भी देता है। 
      हमारी संस्कृतियां हमारे परिवार के संस्कारों में परिलक्षित होती है। अभिषेक के उपरांत पार्थिव प्रतिमा मेरे घर में विद्यमान है और कल इसका विसर्जन भी कर देंगे। लेकिन आज की रात्रि बाबा के सामने जो ज्योति प्रचलित हो रही है। यह जलती ज्योति,हमारी परंपरा और संस्कार की प्रतीक है, जिससे हमारी पत्नी कभी अपने मन से विस्मृत नहीं कर सकती, ऐसा मेरे घर में,अभिषेक एवं पूजन उपरांत पार्थिव लिंग के सामने जलते हुए दीपक को देखकर समझ सकते हैं।

     हर हर महादेव।
    राजेश कुमार सिंह श्रेयस 
    लखनऊ / बलिया

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