उत्तर प्रदेश बलिया
इनपुट: अमीत कुमार गुप्ता
बलिया:---दुनिया पहले कभी इतनी तेज़ी से नहीं बदली जितनी बीते दो दशकों में बदली है। विज्ञान और तकनीक ने जीवन की रफ्तार को कई गुना तेज़ कर दिया है। अब सूचना एक क्लिक पर है, दुनिया की हलचल हर सेकंड मोबाइल की स्क्रीन पर है, और भावनाओं का इज़हार एक इमोजी, एक स्टोरी, या एक "रील" में सिमट चुका है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तेज़ रफ्तार और तकनीकी चमत्कार के बीच इंसान की "संवेदना" अब भी वैसी है जैसी पहले थी?
कई संकेत बताते हैं कि हम एक ऐसे मोड़ पर हैं जहां संवेदना भी ‘डिजिटल’ हो चुकी है। दुख, करुणा, सहानुभूति अब यह सब कुछ हम स्क्रीन पर "लाइक", "कॉमेंट", "शेयर" या "रीपोस्ट" के माध्यम से व्यक्त करते हैं। कोई मरता है, तो RIP लिख दिया जाता है। कोई दर्द बताता है, तो "stay strong bro" कहकर आगे बढ़ जाते हैं। कभी किसी की आंखें पढ़ कर उसकी तकलीफ को समझा जाता था, अब किसी के “स्टेटस” से उसकी मानसिक हालत का अंदाज़ा लगाया जाता है। दुख, अब आभासी हो गया है और साथ ही, उसका असर भी क्षणिक।
यह बदलाव महज़ व्यवहारिक नहीं है, बल्कि मानसिक और सामाजिक भी है। रिश्ते जो कभी अनुभव, साझा समय, और गहराई पर आधारित होते थे, अब “रीड रिसीट्स” और “टाइपिंग…” के बीच पलते हैं। दोस्ती अब चैट हिस्ट्री में छिपी होती है, न कि किसी पुराने खत या फोटो एलबम में। प्यार अब फॉलोअर्स की गिनती और प्रोफ़ाइल पिक्चर के स्टेटस से परखा जाता है, और दुख का प्रदर्शन भी इंस्टाग्राम की एक स्टोरी में 24 घंटे के भीतर गायब हो जाता है।
इतना ही नहीं, लोगों की प्रतिक्रिया अब "ट्रेंड्स" पर आधारित होती है, संवेदना नहीं। एक बच्ची की मौत की खबर पर संवेदना इसलिए दिखती है क्योंकि वह वायरल है, लेकिन उसी समय पास के गाँव में भूख से किसी बुज़ुर्ग की मौत पर समाज चुप रहता है क्योंकि वह खबर “एंगेजिंग” नहीं है। अब तकलीफ को तवज्जो उसकी डिजिटल वैल्यू से मिलती है, न कि उसके मानवीय मूल्य से।
आशंका यह भी है कि यह डिजिटल संवेदना कहीं असल जिंदगी की संवेदना को कुंद न कर दे। जब हम हर दिन स्क्रीन पर किसी न किसी की मौत, विस्थापन, बलात्कार, युद्ध, आत्महत्या, या तबाही की खबर पढ़ते हैं, तो हमारी संवेदनाएं उस दुःख से एक प्रकार की प्रतिरोधकता (numbness) विकसित कर लेती हैं। शुरू में जो दृश्य हमें अंदर तक हिला देते थे, वे अब ‘साधारण’ लगने लगे हैं क्योंकि हमने उसे स्क्रीन पर एक ‘कंटेंट’ की तरह देखना शुरू कर दिया है, एक रियलिटी के तौर पर नहीं।
दूसरी ओर, तकनीक का यह युग हमें जोड़ता भी है हमें वह मंच देता है जहाँ हम आवाज़ बन सकते हैं, किसी आंदोलन का हिस्सा बन सकते हैं, दुख बांट सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम इसका इस्तेमाल मानवीय गहराई से कर रहे हैं या केवल डिजिटल उपस्थिति दर्ज करने के लिए?
बदलते समय के साथ बदलाव स्वाभाविक है, लेकिन बदलाव की दिशा तय करना हमारे हाथ में है। संवेदना यदि पूरी तरह डिजिटल हो गई, तो डर इस बात का है कि एक दिन हम अपनी आत्मा से भी कनेक्शन खो बैठेंगे। ऐसे में तकनीक को दोष देना पर्याप्त नहीं, बल्कि ज़रूरत इस बात की है कि हम अपने भीतर झांकें क्या हम वाकई महसूस कर रहे हैं या केवल “लाइक” और “स्क्रॉल” कर रहे हैं?
संवेदना का डिजिटल रूप संक्रमण का एक हिस्सा हो सकता है, लेकिन उसका स्थायी रूप नहीं होना चाहिए। क्योंकि इंसान होने का अर्थ केवल सोचने वाला जीव होना नहीं है, बल्कि महसूस करने वाला मन और जुड़ने वाली आत्मा होना है। और जब तक यह जुड़ाव स्क्रीन से नहीं, दिल से रहेगा तब तक दुनिया में बदलाव चाहे जितना तेज़ हो, इंसानियत जीवित रहेगी।