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    Ozone:ओजोन दिवस विशेष-"दिकपाल आवरण" बनाम "ओजोन आवरण":डॉ जयप्रकाश तिवारी




    बलिया/लखनऊ, उत्तर प्रदेश
    इनपुट: हिमांशु शेखर 
     
    बलिया/लखनऊ, उत्तर प्रदेश:--भारतीय दर्शन का प्रसिद्ध सृष्टि सिद्धांत सूत्र है - अग्नि सोमात्मकम जगत। उपनिषदों में इसे "रयि और प्राण", "चन्द्र और सूर्य", "सोम और अग्नि" ... इत्यादि युग्म से अभिहित किया गया है। अग्नि और सोम में उचित अनुपात, प्राकृतिक संतुलन, चराचर सृष्टि के कल्याण के लिए अभीष्ट है। यहां ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा हमारी संस्कृति में दिशा विभाजन, दिकपाल की संकल्पना, वर्णन और उनके कार्य और दायित्व निर्धारण की ओर। भारतीय संस्कृति 10 दिशाओं की चर्चा तो करती ही है, इन दिशाओं के एक प्रतिनिधि देव (शासक) रूप में दिकपाल को भी चिह्नित करती है। यदि पृथ्वी को केंद्र माना जाय तो इन दस दिशाओं के दिक्पलों के नाम इस प्रकार हैं - "पूर्व- इन्द्र", "पश्चिम- वरुण", "उत्तर- कुबेर", "दक्षिण- यम", "ईशान- शिव", "आग्नेय- अग्नि", "नैऋत्य- नऋति", "वायव्य- वायु", "ऊर्ध्व- ब्रह्मासी और "अध: - विष्णु"। यदि इनको आपस में जोड़ दिया जाए तो ये पृथ्वी के दशोदिक एक लेयर, (स्फियर) का निर्माण करते है। इन दिकपालों का मुख्य कार्य इस लेयर में "अग्नि" और "सोम" तत्व के अनुपात को संतुलित करना है। इसलिये इनका प्रमुख कार्य जलवृष्टि, पृथ्वी पर ताप संतुलन, और ऋतुओं का समयबद्ध होना इत्यादि है। इस लेयर को "लोकपाल" या प्रतिनिधि दिक्पाल "इन्द्र" के नाम पर *इन्द्र लेयर* भी कहते हैं। विज्ञान जगत ने अंतरिक्ष में ऐसी ही एक लोकहितकारी लेयर को "ओजोन लेयर" कहा है जो हानिकारक परावैगनी किरणों से हमारी रक्षा करती है। यहां ध्यातव्य है कि ओजोन लेयर के क्रियाशील तत्त्व जड़ हैं, भौतिक है; किंतु "दैविक लेयर" मे क्रियाशील तत्त्व पूर्णतया चेतन, दैवीशक्ति सम्पन्न देवता तत्त्व हैं। वृत्र भी एक चेतन शक्ति ही है किंतु अकल्याणकारी, नकारात्मक कार्य के कारण उसे असुर कहा गया है।
         अब ध्यान दीजिए उस आध्यात्मिक/पौराणिक कथानक पर जिसे प्रायः *इन्द्र-वृत्तासुर संग्राम* से वर्णित किया गया है। इन्द्र को तो हम सभी ने जान लिया, वह दैवी शक्ति संपन्न दिकपालो का प्रमुख है। अब यह भी भलीप्रकार स्पष्ट हो गया है कि यह वृत्तासुर कौन है? लक्षणार्थ से कहा जा सकता है कि इस वृत्त या लेयर मे उस असुर या विकृति की उपस्थिति और उदय जो संतुलन कार्य में रत-निरत "इन्द्र" या लोकपाल के कार्य को दूषित - प्रदूषित, बाधित करता रहता है, और वही असुर उस लेयर मे विकृति का मुख्य कारण है। इस विकृति को दूर करना, हटाना, परिष्कृत करना, समाप्त कर देना ही "इन्द्र" और "वृत्रासुर" का आपसी द्वंद, संघर्ष ही *इन्द्र-वृत्रासुर संग्राम* है। एक बात और, इसी प्रकरण में एक तथ्य आता है कि वृत्रासुर को परास्त करने के लिए इन्द्र "सोमरस" का पान करता है। सोमरस पीकर वह पुनः बलिष्ठ हो जाता है तथा वृत्रासुर को बार-बार परास्त कर देता है। अब आइए देखते हैं इस प्रकरण में सोमरस का सिद्धांत पक्ष क्या है? और यह कैसे कार्य करता है?


     ऊपर एक सूत्र उद्धरित किया गया है - "अग्नि सोमात्मकाम जगत"। इस सूत्र में परस्पर दो सिद्धांत कार्य करते हैं - (i) अग्नि सिद्धांत जो गति के लिए उत्तरदाई है, यह क्रिया प्रधान, रजस प्रधान है, इसे ही शास्त्रीय शब्दावली में "अंगिरस सिद्धांत" कहा जाता है। 
    (ii) दूसरा है *सोम सिद्धांत* स्थिति इसका विशेष गुण है,जिसे शास्त्रीय शब्दली में "भृगु सिद्धांत" कहा जाता है। "गति" और "स्थिति/जड़ता" की आपसी खींचतान ही इनका द्वंद है। इन लोकपालों में दो समुदाय हैं - अग्नि, आदित्य, यम आदि अंगिरस सिद्धांत के प्रमुख अवयव हैं। वहीं वायु, वरुण, चंद्रमा आदि "भृगु सिद्धांत" के प्रमुख अवयव हैं,  ये दोनों विपरित गुण धर्म वाले हैं। "गोपथ ब्राह्मण" मे इसे इस प्रकार चिह्नित और विश्लेषित किया गया है।
    File phone of:डॉ जयप्रकाश तिवारी

    अग्निरादित्ययमा इत्यांगिरस:।
    वायुरापश्चंद्रमा इति भुगव:।।(2.9)

           अपने प्रमुख दिकपाल इन्द्र को उसका सहयोगी सखा "विष्णु" क्रियाशीलता, गति हेतु, पैर की गति, हस्त के फैलाव से (सहायता) प्रदान करता है और यजुष (यज्ञाहुति) द्वारा इन्द्र को गतिशील करने हेतु "सोम" (हविष्य, समिधा, खीर, औषधि...) प्रदान की जाती है। "सोम" शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, यहां हविष्य, औषधीय वनस्पतियों की आहुति ही सोम का लक्ष्यार्थ है। "स्मृति" भी इसी प्रक्रिया की पुष्टि करते हुए कहती है कि यज्ञग्नि में विधि पूर्वक समर्पित आहुति आदित्य (इन्द्र) को ही प्राप्त होती है जिसके परिणाम स्वरूप वर्षा होती है - *अग्नौ प्रास्ताहुति: सम्यगादित्य मुपतिष्ठे। आदित्याज्जायते वृष्टि वृष्टेरन्नम् ततः प्रजा* (मनुस्मृति 3/76)।। "यज्ञ" और यज्ञीय प्रक्रिया द्वारा "सोम" का अंतरिक्ष में "इन्द्र के पास प्रक्षेपण एक जटिल यज्ञ प्रक्रिया है", जिसके लिए इस छोटे आलेख में कोई अवकाश नहीं है। इन्द्र का गतिशील होकर अंतरिक्ष को मानव कल्याण, जीव कल्याण हेतु सतत क्रियाशील रहना, जल की जड़ता तोड़कर उसे गति प्रदान का पृथ्वी तक पहुंचना ही इन्द्र की विजय है। *यही विज्ञान की शब्दावली में ओजोन लेयर का सरंक्षण कार्य है।*

        इसी प्रकार "श्रीमार्कण्डेय पुराण" (श्रीदुर्गासप्तशती अध्याय (10/28 - 32) में "दैत्य शुंभ वध" के उपरान्त आकाश, अंतरिक्ष का शुद्ध, स्वच्छ हो जाना, उल्कापात, उत्पात का शांत हो जाना, कोलाहल, ध्वनि प्रदूषण रुक जाना, नदियों का कलकल निनाद करते अपने मार्ग से समुचित बहना, वायु का दोषमुक्त होकर पवित्र रूप से बहना, सूर्य की प्रभा का उत्तम हो जाना इत्यादि वर्णन का निहितार्थ अंतरिक्ष में वायु प्रदूषण का समाप्त हो जाना ही है। प्रकृति विनाशक "शुंभ बध" एक प्रकृति शोधन प्रक्रिया है जिसे पौराणिक कथा के रूप में रोचक, मनोरंजक विधि से वर्णित किया गया है। यदि दुर्गासप्तशती की कथाओं का वैज्ञानिक और सैद्धांतिक व्याख्या किया जाय और उसमे भी कोई पर्यावरणीय सूत्र, सिद्धांत प्रकट हो जाय तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संस्कृति ने पर्यावरण प्रदूषण, पर्यावरण समस्या की पहचान भौतिक विज्ञान से अधिक सूक्ष्मतर, सुस्पष्ट है। विज्ञान अभी तक पर्यावरण की गुत्थियों में ही उलझ हुआ है जबकि अध्यात्म ने "परित: आवरण" से लेकर "अन्त: आवरण" तक के रहस्यों को भी ढूंढ लिया है। अध्यात्म कथाओं में विज्ञान के सिद्धांतों को यदि मनोयोग से ढूंढा जाए तो यह विज्ञान का अग्रज और पूर्वज ही सिद्ध होगा, इसमें जल शोधन, वायु (प्राण) शोधन और प्रकृति शोधन के अनेक उन्नत विधि - विधान मिल जाएंगे।

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