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    भगवान की पूजा या सेवा : Pt Ashish Tiwari

    उत्तर प्रदेश बलिया 
    इनपुट: हिमांशु शेखर 


    बलिया उत्तरप्रदेश:---सामान्य भाषा में भगवान की ‘सेवा’ और ‘पूजा’ दोनों का समान अर्थ माना जाता है; लेकिन वैष्णव आचार्यों ने भाव के अनुसार इनमें बहुत बड़ा अंतर माना है।

    जानते हैं, भगवान की सेवा और पूजा में अंतर..

    ▪️ जहां मंत्र मुख्य है और प्रेम गौण है, उसे ‘पूजा’ कहते हैं। पूजा में विधि ज्यादा जरुरी है, भले ही भाव मन में प्रकट हों या न हों। 

    विधि अनुसार भगवान की पूजा में हम उन्हें विभिन्न उपचार जैसे.. स्नान, चंदन, रोली, चावल, फूलमाला, इत्र, भोग, धूप-दीप आदि मंत्र द्वारा निवेदित करते हैं। पूजा में जो मंत्र बोले जाते हैं, उन मंत्रों के अधिष्ठाता देव उन मंत्रों के अधीन हो जाते हैं। 

    जैसे नैवेद्य अर्पित करते समय कहते हैं.. ‘प्राणाय स्वाहा। अपानाय स्वाहा। व्यानाय स्वाहा। उदानाय स्वाहा। समानाय स्वाहा। नैवेद्यं निवेदयामि।’

    बस लग गया भोग और तुरंत ही ‘हस्त प्रक्षालनं समर्पयामि’ कह कर भगवान के हाथ धुलवा देते हैं। 

    जहां मंत्र पूरा हुआ भगवान को भोजन पूरा करना पड़ता है; क्योंकि तुरंत ही भोग हटा कर उनको आचमन करा दिया जाता है। 

    कल्पना करें भगवान को कैसा लगता होगा जब वे भोजन करने बैठें और तुरंत ही भोजन की थाली उनके आगे से उठा दी गई हो ?

    ▪️ जहां मंत्र गौण है और प्रेम व भाव मुख्य है, उसे सेवा कहते हैं। चित्त को भगवान से जोड़ देना या ठाकुर जी में मन को पिरो कर रखना ही ‘सेवा’ है। 

    अन्य भक्तिमार्गों में भगवान की अर्चना को ‘पूजा’ कहा जाता है; परन्तु पुष्टिमार्ग में प्रभु की अर्चना को ‘सेवा’ कहा जाता है। 

    क्योंकि पुष्टिमार्ग में भगवान की सेवा पूर्ण समर्पण के साथ नंदनन्दन को प्रसन्न करने और सुख देने के लिए की जाती है। सेवा में प्रेम और भाव ही मुख्य है। ठाकुर जी जब घर में विराजते हैं तो घर घर नही रह जाता, वह प्रभु की क्रीड़ा का स्थल बन जाता है, नन्दालय बन जाता है।

    पुष्टिभक्त के हृदय में भाव रूप में भगवान विराजते हैं। इस भाव की सिद्धि के लिए वह प्रभु के अनेक मनोरथ कर उनको रिझाते है। 

    वात्सल्य भाव की सेवा में जब बालकृष्ण को जगा कर दूध का भोग निवेदित करते हैं तो भाव होता है कि बालक धीरे-धीरे मनुहार करके दूध अरोगेगा; इसलिए थोड़े ज्यादा समय के लिए भोग रखा जाता है और नंदनन्दन को रिझाने के लिए पद गाए जाते हैं।

    ठाकुर जी की भावमयी सेवा में कोई अलग से खर्च नहीं होता है। घर के सदस्यों के लिए जो भोजन बने उसी से पहिले ठाकुर जी को भोग लगा दो, वह महाप्रसाद बन जाएगा; किन्तु उसमें से एक किनका भी कम नहीं होगा। 


    यदि श्रद्धा और सामर्थ्य हो तो कुछ सोने-चांदी की श्रृंगार की वस्तुएं उनके लिए ले आओ, नहीं तो केवल मोरमुकुट और गुंजामाला से भी ठाकुर जी प्रसन्न हो जाते हैं। इत्र, फल-फूल घर में हों तो पहिले ठाकुर जी को अर्पण कर दो। अगर तुम्हारा मन कुछ अच्छा खाने को करे तो पहिले ठाकुर जी को अर्पण करके खाओ। 

    इस तरह ठाकुर जी की सेवा करने से कुछ घटता भी नहीं, सब कुछ घर का घर में ही रहता है और मनुष्य का लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं।

    ठाकुर जी की सेवा में हृदय न पिघले तब तक सेवा सफल नहीं होती है। वे तो केवल भाव के भूखे हैं और साधक के मन के भाव ही देखते हैं। 

    प्रभु सेवा को खरच न लागे।
    पूरन प्रभु भाव के भूखे देखें अंतर की प्रीति।।
    यामें कहा घट जाय तिहारो घर की घर में रहिहे।
    वल्लभदास होय गति अपनी भलो भलो जग कहिहे।।

    पूर्ण समर्पण और स्नेह के साथ की गई भगवान की सेवा से सेवक को अत्यंत आनंद प्राप्त होता है। वैष्णव जब बालगोपाल को श्रृंगार धारण कराता है तो उसे इससे वैसा ही आनंद मिलता है, जैसा कि योगियों को समाधि में मिलता है।

    सेवा में भगवान केवल हृदय की लगन देखते हैं : 

    ईश्वर हृदय के भावों में ही रहते हैं, कहीं जाते नहीं हैं और कहीं से आते भी नहीं है। भावपूर्ण मन जब उनके सम्मुख होता है, तभी वह प्रकट हो जाते हैं और जब मन ईश्वर से विमुख होकर संसार में लीन होता है, तब वह छिप जाते है। 

    आज हम बस रुटीन पूरा करने के लिए ही पूजा-पाठ करते हैं। नित्य पूजा में देह तो पूजाघर में होती है और मन कहीं और; इसीलिए पूरी जिन्दगी पूजा करते बीत जाती है पर कोई सिद्धि हाथ नहीं लगती है। मन में कुछ भाव होगा तो वहां भगवान अवश्य आयेंगे। 

    भाव का भूखा हूँ मैं, बस भाव ही एक सार है।
    भाव से मुझको भजे तो, उसका बेड़ा पार है।।

    अन्न धन अरु वस्त्र भूषण, कुछ न मुझको चाहिए।
    आप हो जायें मेरे बस, पूरण यह सत्कार है।

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