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    सनातन संस्कृति में "पर्यावरण": एक परिचर्चा:डॉ. जयप्रकाश तिवारी


    उत्तर प्रदेश बलिया 
    इनपुट: हिमांशु शेखर 
                    
      बलिया, उत्तर प्रदेश :--- अध्यात्म, दर्शन और विज्ञान सभी ने इस प्रकृति और इन प्राकृतिक धरोहरों से ही इनकी सानिध्य और सुसंगति में मनन-निदिध्यासन से, संधान-अनुसंधान से पायी है अपने-अपने क्षेत्र में अनेक विशिष्ट, अनुपम सिद्धांत और उपलब्धियां। 'अध्यात्म' ने जहां हिमालय से सती, पार्वती, गौरी और जगदम्बे रूप मे "विलक्षण माया शक्ति" प्राप्त किया, वहीँ इसी पत्थर के टक्कर से, इसी गिरि से, शैल से ही, 'भौतिक विज्ञान' ने पाया है- दाहक ऊष्ण 'आग', 'ऊष्मा', स्फुलिंग-चिंगारी और इसके झरनों और प्रपात के जल से विज्ञान ने पुनः पाया है एक और ऊर्जा स्रोत, 'जल विद्युत्'.. आदि। चिकित्सा विज्ञान ने पाया जीवन प्रदायिनी दिव्य जड़ी, बूटी, औषधियां..। वहीँ ऋषियों, दर्शनिकों को प्राप्त हुआ- एक दिव्य युग्म "शिव और शक्ति" का, "पुरुष और प्रकृति", कण-कण व्यापी अलौकिक, अमूर्त, अदृश्य परमतत्व जो सर्वगत, संवित होकर भी सबसे पृथक है। साधक को यहीं मिला है कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति का मार्ग..., मुमुक्षु को मिली मुक्ति। इस प्रकार यह "वृद्धा प्रकृति", "बूढा हिमालय" और "अधेड़ आदित्य" ही हैं हमारे आदि स्रोत; साधना का, ज्ञान का, अध्यात्म का, विज्ञान का, दर्शन का, सभ्यता और संस्कृति का.. आराधना और वरदान सभी का। समय के साथ लोभी, लोलुप मानव मन ने खूब किया है इस रसीली प्रकृति का दोहन, शोषण और दुरुपयोग। फलत: व्याप्त हो गया है आज दसोदिक विकट प्रदूषण। यह वरदायिनी पोषक प्रकृति अब इस प्रदूषण के कारण विद्रुपिणी शापिनी सी दिखने लगी है। इस प्रदूषण को मिटाना है, इस रुग्ण, बीमार पर्यावरण को स्वस्थ और लोकमंगकारी बनाना है तो मानव को संवेदनशीलता का पाठ पढ़कर ज्ञान-विज्ञान-प्रज्ञान सभी को साथ मिलजुल का रचनात्मक कार्य करने होंगे।
           सनातन संस्कृति, आर्ष चिंतन और दर्शन इस "पृथ्वी" को आच्छादित करने वाले आकाशीय, अंतरिक्ष आवरण (जिसे वैज्ञानिक शब्दावली में *पर्यावरण* कहा जाता है) केवल उसके ही संरक्षण / शोधन की बात नहीं करता, वह इससे कही अधिक सूक्ष्मतर, व्यापक स्तर पर ब्रह्मांडीय संरचना, उसके सूक्ष्म और स्थूल परतों, आवरणों की विस्तृत चर्चा करके उसके संरक्षण, शोधन, परिशोधन की बात करता है। हमारी संस्कृति का विश्वास है कि प्रकृति पूजा ही प्रकृति संरक्षण है, बिना समर्पण न पूजा संभव है, न ही शोधन, परिशोधन। प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ मंगलकारी कारकों में *अग्नि* का स्थान प्रथम है। यही "अग्नि" हमारी संस्कृति और सभ्यता का आधार भी है। यह अनायास नहीं है, यह चिरपरीक्षित सत्य है, इसलिए सयास है। इसकी उपयोगिता का सशक्त प्रमाण यही है कि विश्व के प्राचीनतम आध्यात्मिक ग्रंथ "ऋग्वेद" के 'प्रथम सूक्त' के 'प्रथम ऋचा' का 'प्रथम शब्द' यह "अग्नि" ही है। उपयोगिता की दृष्टि से यह लोकहितकारी भावना है, चिंतन भी है और क्रिया भी। बिना क्रिया के भावना मात्र एक कोरी कल्पना ही है। महत्व तो लोकमंगलकारी "क्रिया" का ही है। इसलिए यह प्रथम मंत्र (सिद्धांत और सूत्र) अग्नि को ही समर्पित है। यह अग्नि तत्त्व तथाकथित "आग" या "भौतिक ऊष्मा" (जड़ तत्त्व) नहीं है, जैसा मैक्समूलर आदि पाश्चात्य विद्वानों ने समझा है। नेत्र जिसे स्थूल रूप में देखती है, वह "आग" है, "अग्नि" नहीं। अग्नि उसका आधार है और आग आधेय। यह आग "सूक्ष्म चेतन अरूप अग्नि तत्व" से ही चेतान्वित होकर उष्णता, दाहकता, अंगार, प्रकाश आदि गुणधर्म प्राप्त करता है। मानव शरीर (व्यष्टि) में यही अग्नि "प्राणाग्नि" रूप से और विश्व (समष्टि) में "अग्नि ऊर्जा" रूप मे विद्यमान होकर सभी क्रिया को संचालित करती है। यह "अग्नि" सचेतन दैवीय तत्त्व है; "अग्नि" देव हैं, देवता हैं जिन्हे स्थूल नेत्र से नहीं देखा जा सकता (देखने के लिए ज्ञानचक्षु चाहिए)। इसीलिए ऋग्वेद में उन्हें "देव" कहा गया है - *ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवं ऋत्विजम* (प्रथम मण्डल 1.1.1)। इस अग्नि की दूसरी विशेषता यह है कि अग्नि "पुरोहित" भी है। पुरोहित अर्थात परहित में ही निरत रहने वाला, यह केवल अपने पुरा एवं राज्य का ही नहीं, पूरे लोक का, समस्त विश्व का कल्याण करने वाला, लोक मंगलकारी है। इन्हीं सद्गुणों के कारण "सूर्य" को भी *यो देवानाम पुरोहित:* संबोधन से शुक्ल यजुर्वेद के "नारायण सूक्त" (4) में "पुरोहित" कहकर संबोधित किया गया है। इसी पौरोहितत्व के कारण सूर्य "विश्वामित्र" भी है और "लोकपूषण" भी। सूर्य और अग्नि दोनों समान गुणधर्मों के वाहक होने से समानार्थी भी माने जाते है, किंतु "अग्नि" की विशेषता यह है कि एक ही साथ यह 'पुजारी भी है', 'देव भी है' और 'पुरोहित भी'। इसलिए इसी "अग्नि" तत्त्व से सन्मार्ग पथ पर गतिशील, प्रेरित करने और प्रकृति विरोधी, अमंगलकारी कृत्यों को, अशुभ चिंतन को, स्वार्थी- संकीर्ण-कुविचारों को "युयोधि" अर्थात् (नष्ट, नाश) करने की प्रार्थना ईशावास्य उपनिषद (18) में की गई है - *अग्ने नय सुपथा राये  ... युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो*, प्रकृति और पर्यावरण में संतुलन और शोधन से श्रेयष्कर "सन्मार्ग पथ", "कल्याण पथ" दूसरा हो भी क्या सकता है? इस अग्नि तत्त्व की परिधि अत्यंत व्यापक है, यह भूलोक से अंतरिक्ष लोक, देवलोक तक, "व्यक्त प्रकृति" के सभी 24 तत्वों तक परिव्याप्त है - *अग्नि अयं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि। स इद देवेषु गच्छति* (ऋग्वेद 1.1.4)। भौतिक विज्ञान के क्षेत्र मे जो महत्व "ऊर्जा / एनर्जी" का है, अध्यात्म के क्षेत्र में उससे भी अधिक महत्व "अग्नि" तत्त्व का है। अग्नि की पर्यावरण संतुलन, शोधन मे कितनी उपयोगिता है, कितनी महिमा है; इसकी व्याख्या इसी आलेख में उचित स्थान पर, अग्नि और सोम से संबंधित प्रकरण में स्पष्ट किया जाएगा। *यह अग्नि "व्यष्टि", इकाई रूप में 'व्यक्ति शोधन', अभ्यांतर शोधन और "समष्टि" समग्र रूप में 'प्रकृति शोधन' का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य करती है।

          सनातन संस्कृति पूरी प्रकृति को मुख्य रूप से तीन आवरणों - आधिभौतिक आवरण, आधिदैविक आवरण और आध्यात्मिक आवरणकी विस्तृत अवधारणा, व्याख्या प्रस्तुत करती है। साथ ही प्रकृति के सर्वाधिक चेतन और बौद्धिक प्राणी "मानव" के लिए और भी गहराई से चिंतन करते हुए सम्पूर्ण मानव जगत के कल्याण के लिए पांच सूक्ष्म आवरणों की अवधारणा को भी प्रस्तुत करता है। इस सूक्ष्म आवरण की भी पांच अन्त: आवरण हैं - 
    (i) भौतिक आवरण  या अन्नामय कोश), (ii) प्राणिक आवरण या प्राणमय कोश), (iii) मानसिक आवरण या मनोमय कोश), (iv) बौद्धिक आवरण या विज्ञानमय कोश और (v) कारण आवरण या आनंदमय कोश। इस वर्गीकरण को वस्तुनिष्ठ विभाजन भी कहा जा सकता है और यह विभाजन क्रमशः मानव के वैयक्तिक कल्याण, आत्म कल्याण, आध्यात्मिक ज्ञान, स्व स्वरूप ज्ञान के साथ समग्र मानव कल्याण के लिए अत्यंत उपयोगी है।

           सनातन संस्कृति पुनः मानव जीवन को इकाई (व्यष्टि) मानते हुए इन पंचकोशों को तीन अवस्थाओं "जाग्रत अवस्था", "स्वप्न अवस्था" और "सुषुप्ति अवस्था" नाम से सूक्ष्मतर आभ्यांतर विभाजन कर जीवन मूल्यों, अनुभवों को चिह्नित कर परमसत्य और परमतत्व तक की यात्रा संपन्न करा देती है। भौतिक और प्राकृतिक जीवन में पांच महाभूतों के सीधे संपर्क होने के कारण जल - जीवजंतु - वनस्पतियों, आकाशीय पिंडों से अन्नमय कोश का जाग्रत अवस्था में व्यापक और स्थूल प्रभाव है। यह पांचों ज्ञानेंद्रियां और पांचों कर्मेंद्रियां पर सीधा प्रभाव पड़ने के कारण सामाजिक, भौतिक जनजीवन को प्रभावित करता है। विज्ञान ने इसी भौतिक जीवन पर कुप्रभाव डालने वाले कारकों की पहचान कर उन्हें जल, थल और वायु प्रदूषण कहा और पर्यावरण को शुद्ध, परिशुद्ध जीवनानुकूल बनाने हेतु जहां पर्यावरण संरक्षण की बात कही, भौतिक उपाय और समाधान प्रस्तुत किया; वहीं सनातन संस्कृति, भारतीय दर्शन ने वाह्य और आभ्यंतर दोनों ही स्तरों पर शोधन करने की आवश्यकता पर यथोचित बल दिया। भौतिक जगत, अधिभौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत तीनों में शुद्धि, परिशुद्धि, शांति पर पर्याप्त बल दिया। उसने अपनी वार्ता केवल जाग्रत (भौतिक) और स्वप्न (मनोमय / मानसिक), सुषुप्ति तक सीमित न रखकर उस सर्वोच्च तत्व और तत्व साक्षात्कार की बात की जहां सुख-शांति अल्प नहीं, क्षणिक नहीं, समग्र और "भूमा" है, सम्पूर्ण आनन्द है, परमानन्द है।

           आज विज्ञान अपने अनुसंधानों पर इतराते हुए बड़े गर्व से कहता है कि धर्म और अध्यात्म वृक्ष-वनस्पति संवर्द्धन, जल शोधन की बात तो कर लेता है, क्या उसने कभी वायु शोधन पर, अंतरिक्ष शोधन पर भी सार्थक बात कभी की है? क्या कभी "ओजोन लेयर" जैसी समस्याओं की परिकल्पना और समाधान प्रस्तुत किया है? इसका शालीन, विनम्र और स्पष्ट उत्तर है - "जी हां"। भारतीय संस्कृति ने इस संपूर्ण प्रकृति को *पंचमहाभूतात्मक* कहा और इन पंचमहाभूतों के औचित्यपूर्ण सामंजस्य का ही नाम है " संतुलित प्रकृति"। 

          संतुलन की यह अवधारणा ही स्पष्ट करती है कि इसमें औचित्य पूर्ण निरंतर सामंजस्य स्थापना के लिए संरक्षण और शोधन की भी सार्थक परिकल्पनाएं हैं। पर्यावरणीय सभी समस्याओं के समाधान हेतु अध्यात्म और विज्ञान में समन्वय और सामंजस्य बनाकर कार्य करने की नितांत आवश्यकता है।

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