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    नवरात्र पर्व एक खोज है (भाग 7) देवी के (9) रूपों के चयन का रहस्य :डॉ जयप्रकाश तिवारी (पूर्व वरिष्ठ शोधअध्येता, संस्कृति विभाग, नई दिल्ली)



    उत्तर प्रदेश बलिया 
    इनपुट: हिमांशु शेखर 



    बलिया उत्तरप्रदेश:---देवी के (9) रूपों के चयन का रहस्य
     अब यहां एक प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि जब देवी मां के 108, 33 तथा अन्यान्य नामों का उल्लेख और विषद वर्णन है तो 9 की ही संख्या पर इतना प्रबल आग्रह, स्वीकृति, मान्यता, अटूट विश्वास क्यों? इसके उत्तर के लिए हमे पुनः देवी की स्वीकारोक्ति को ही आधार वाक्य बनाना पड़ेगा, जहां देवी ने कहा है -*अहं ब्रह्म स्वरूपिणी*। वह अक्षर ब्रह्म क्या है? यह प्रश्न दार्शनिक / आध्यात्मिक है तो उत्तर के लिए भी हमें दार्शनिक ग्रंथों की ही शरण में जाना पड़ेगा। 

            मांडूक्य उपनिषद में ब्रह्म की परिभाषा, स्वरूप लक्षण मिलता है, जहां कहा गया है कि वह (तत्) "जो अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण, और चक्षु, श्रोत्र, हस्त, पाद से रहित है; तथा जो नित्य, विभु, सर्वगत, अत्यंत सूक्ष्म और अव्यय है। जो सम्पूर्ण महाभूतों का कारण है, वही अक्षर ब्रह्म है और उसे विवेकवान प्रज्ञा पुरुष सब और परिव्याप्त देखते है" ( मांडूक्य 1.6)। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी संस्कृत मंत्र का भावानुवाद "मानस" में साधारण लोकभाषा में किया है - *बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ विधि नाना।। आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बाणी बकता बड़ जोगी।। तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रह घ्राण बिनु बास असेषा।।* (मानस बा.का. 118) इस भाषा शब्दावली से ऐसा भ्रम हो सकता है कि "ब्रह्म" क्या पुलिंग है? ऐसे ही भ्रम निवारण के लिए श्वेताश्वर उपनिषद यदि विधेयात्मक शब्दावली में कहता है - "तू ही स्त्री है, तू ही पुरुष है, तू ही कुमार या कुमारी है, तू ही वृद्ध होकर दण्ड के सहारे चलता है तथा तू ही प्रपंच रूप से उत्पन्न होने पर अनेक रूप, सर्व रूप, अनन्त रूप हो जाता है" (श्वेताश्वतर उप. 4.3)। तो वहीं निषात्मक शैली में भी कहता है में विलक्षण हूं, बिलक्षणा हूं, मेरा कोई लक्षण नहीं है - *नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसक:* (श्वेताश्वतर उप 5.10)। अर्थात न यह स्त्री है, न पुरुष है, और न नपुंसक ही है। वह एक है और स्वयं की अनेक होकर उसीमे परिव्याप्त हो गया है, वह सूक्ष्मतम परमाणु से भी परमाणु और महानतम से भी महान है (श्वेताश्वतर उप. 3.20)।

          वस्तुत केवल ब्रह्म ही पूर्ण है, दूसरा कोई भी नहीं। इसलिए उपनिषद दर्शन को पूर्णता का दर्शन भी कहा जाता है। क्या है यह ब्रह्म की पूर्णता का दर्शन? और क्यों कहा जाता है इसे पूर्णता का दर्शन? आइये आज इसे समझने का प्रयास करते हैं।  इसके लिए श्वेताश्वर उपनिषद् के एक मन्त्र को यदि हम प्रतिनिधि और बीजमंत्र के रूप में स्वीकार कर सकें तो यह पूर्णता अपने दिव्य रूप में वहाँ प्रकट होता है, समझने और समझाने दोनों ही दृष्टि से यह सर्वथा उत्तम है। यह मन्त्र है - *एको देवः सर्वर्भूतेषु गूढः  सर्वव्यापी सर्व भूतान्तरात्मा*। *कर्माध्यक्षः सर्व भूताधिवासः साक्षी चेता केवलः निर्गुणश्च'*।। - (6.11)  

    अर्थात, सभी प्राणियों में स्थित देव (शिव या शिवा) एक है, वही सर्व व्यापक. समस्त भूतों का अंतरात्मा, कर्मों का अधिष्ठाता, समस्त प्राणियों में बसा हुआ साक्षी, परम चैतन्य, परमशुद्ध और निर्गुण है। यह तो हुआ इस मन्त्र का शब्दार्थ। परन्तु यह मन्त्र है बहुत ही रहस्यपूर्ण, .... आइये इसे दूसरे दृष्टिकोण से देखें, संख्याओं में विभाजित कर गणितीय रूप में देखें  -
          1 - एको देवः 
          2 - सर्वर्भूतेषु गूढः  
          3 - सर्वव्यापी 
          4 - सर्वभूतान्तरात्मा 
          5 - कर्माध्यक्षः 
          6 - सर्व भूताधिवासः 
          7 - साक्षी 
          8 - चेता 
          9 - केवलः 
          10 - निर्गुणश्च
        इस मन्त्र में हम देख सकते हैं कि पूरे मन्त्र को '1' से '10' तक की संख्याओ में आसानी से विभाजित किया जा सकता है।
    (1) ब्रह्म तत्त्व की एकता का प्रतीक है।

    (2 ) उसकी गूढता और जटिलता का सूचक।

    (3) सर्व्यापकता का सूचक है।

    (4)  'अणु' की पहचान के द्वारा 'विभु ', 'विराट' और 'भूमा' स्वरुप को पहचानने की ज्ञानात्मक / सध्नानात्मक दृष्टि है।

     (5) आस्तिकों और नैतिक व्यक्तित्व वाले का संबल है, उसके न्यायी प्रकृति के कारण ही व्यक्ति सत्य के लिए अपने 'स्व', अपने अहं  को बलिदान करने की प्रेरणा पता है। 

     (6) वह परमात्मा केवल मानव, केवल चेतन, केवल जड़ तक ही सीमित नहीं है। वह कण -कण  में परिव्याप्त है, यह दृष्टि केवल प्रकृति के साथ भावनात्मक और पारिवारिक सम्बन्ध जो दती है, प्राकृतिक वस्तुओं के साथ मधुर रिश्ते स्थापित करती है, विश्ववन्धुत्व की भावना विकसित करने के लिए यहीं से ऊर्जा मिलती है। यह दृष्टि ग्रह -नक्षत्रो, नदी-पहाड़ से लेकर वनस्पतियों तक से रिश्ते की परिकल्पना की है। 

    File Photo of:डॉ जयप्रकाश तिवारी (पूर्व वरिष्ठ शोधअध्येता, संस्कृति विभाग, नई दिल्ली)

    नाम और रूप तो अलग - अलग है परन्तु, परन्तु तत्वतः नहीं। संतों ने इसीलिए गाया है - 

    आपे रसिया आप रस आपे रावनहार।
    आपे होवे चोलदा आपे सेज भतार ।।

     (7) वह द्रष्टा है, समदर्शी है, इसी गुणों के कारण वह परमन्यायी है. इस लोक में न्याय न मिल पाने पर भी यह विश्वास भक्त को न्याय पथ से नहीं डिगा सकता क्योकि यह विश्वास दृढ है कि यदि यहाँ न्याय नहीं मिला तो क्या हुआ. वहाँ तो मिलेगा. यदि यह विश्वास टूट जाय तो सोचिये क्या होगा? जब इस देश में कोई कानून को कितना मानता है तो क्या नैतिकता, ईमानदारी, जिम्मेदारी और मानवीय मूल्यों का कोई महत्व रह जाएगा ?  

    (8) वह परम चैतन्य है, चेतन होने के कारण ही अपने भक्तों की आर्द्र पुकार सुन लेता है,यह गरीबो, और निर्बलों का एक मात्र बल है,... शक्ति है ... संबल है..। इसी साहस के बल पर एक चींटी भी विशालकाय हाथी से लड़ने और उसे परस्त करने का हौसला पाता है। यह विश्वास औए आस्था का ही बल है जो अग्निसुरक्षा कवचधारी, वरदान प्राप्त होलिका को तो भस्म कर देता है लेकिन प्रह्लाद का विश्वास विजयी होता है. यह वह श्वास-प्रश्वास है जिसमे लौह का दम्भ भी लाल पानी बन जाता है। उसका ठोसपना, उसका दम्भ सब गल जाता है।
            आज का मानव टुकडे - टुकडे देखने का अभ्यस्त हो गया है समग्रता में वह देख ही नहीं पाता। जिस दिन समग्र दृष्टि आ जायेगी वह विवेकानंद, अरविंदो और आइन्स्टीन की तरह आध्यात्मिक वैज्ञानिक (Philosopher of science) बन जाएगा। ईश्वर के स्तित्व को नकारते देखा-सुना गया है परन्तु क्या कोई सत्य को नकार सकता है? सत्य की परिभाषा क्या है? 'परम सत्यम, सत्यम परम' अर्थात जो सत्य है वही परम है और जो परम है वही एक मात्र सत्य है। जो काल बाधित न हो, जो कभी परिवर्तित न हो, सदा एक रस हो। वही तो सत्य है। सत्य ईश्वर का समानार्थी नहीं पर्यायवाची है। आखिर सत्य तो माननेवाला भला ब्रह्म के स्तित्व को कैसे नकार सकता है? आज के युग में ऐसी अलौकिक शक्ति आज केवल राजनीतिक व्यक्तियों के पास है। उसे ही यह अधिकार है क़ि इस 'सत्य' में जब चाहे 'अ' जोड़ दे, जब चाहे 'अ' घटा दे ......।

    (9)  इन संख्याओं में एक अंक की सबसे बड़ी संख्या '9' है और यह संख्या 'केवल' है। केवल वही है- दूसरा नहीं। और दसवी संख्या निर्गुण है जिसका गुणन नहीं हो सकता, वह 'शून्य' है. शून्य स्वतः निर्गुण है ऊपर वाले '1' पर इस निर्गुण शून्य को रख देने से '10' संख्या स्वतः बन जाती है. 

    (10) इस '10' में सम्मिलित '1' ब्रह्म और आत्मा दोनों का प्रतिधित्व करता है( वस्तुत दोनों एक ही हैं भी)। इसमें '10' नाम-रूपमय सृष्टि का वाचक है. इस '1' के अभाव में समस्त सृष्टि 'o' शून्य है। मृतप्राय है, प्रलायावास्था में है, मूल्यहीन है तथा '1' के साथ रहने पर वही मूल्यवान है, सजीव है। '9' अंक केवल है, पूर्ण है, सम्पूर्ण है। अतएव '9' अंक जहां भी रहता है, अपने 'केवली' स्वरुप का परित्याग कभी नहीं करता. अतः केवल है, अतः केवल वही रहेगा जो वस्तुतः है। तत्त्वतः है, जो 'actual' ' और  'factual' दोनों है । इस परम तत्त्व  को पहचानना होगा और जो इसे पहचानेगा वही ज्ञानी और पंडित कहलायेगा, कोई दूसरा नहीं.  - निर्गुण सरगुन आपे सोई, तत पछाड़े सो पंडित होई...

    उदाहराणार्थ :  9 के गुणनफल का योग सदैव 9 ही होगा.
     9 x 1 = 9
     9 x 2 = 18,     (1 + 8 = 9 )
     9 x 3 = 27,     (2 + 7 = 9 )
     9 x 4 = 36,     (3 + 6 = 9 )
      
    इतना ही नहीं योग (+) और घटाव (-) की क्रिया में भी यह ९ अपने स्वरुप का परित्याग कभी नहीं करता। आइये देखें कैसे
    (*अ*) -  
       9+8+7+6+5+4 +3+2+1
          योग = 45,  (4 + 5 = 9)

    (*आ*) - 
           987654321 (45) = (9)
     (-)  123456789  (45  = (9)
          
      = 864197532 =(45) = (9)
         

    अतः कह सकते है: (9 - 9 = 9) या पूर्ण - पूर्ण = पूर्ण       
    इसीलिए उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्म परमपूर्ण है, वह (अदः) और यह (इदं), 'that' और  'this', 'he' और 'she', दोनों में ही वह इकाई रूप में सामान भाव से है। परमतत्त्व पूर्ण, परिपूर्ण है, सम्पूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण को घटाने पर भी सम्पूर्ण ही शेष बचता है। उसमे रंच मात्र भी न्यूनता नहीं आने पाती, इसलिए उपनिषद् कहते हैं - 
    *ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते*। *पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

              दुर्गासप्तशती में "देवी" को *नित्य* कहा गया है। देवी नित्य स्वरूपा हैं, यह संपूर्ण जगत उन्हीं का रूप है। उन्होंने स्वयं को ही समस्त विश्व को व्याप्त कर रखा है - *नित्यैव सा जगनमूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम। तथापि तत्समुत्पत्तीर्बहुधा श्रुयताम मम.... उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते*।(दु.स. 1/64.66)। इस नित्यता को बल देने के लिए, इनके सर्जक, पोषक, जगत नियंता स्वरूप  का उल्लेख बारम्बार किया गया है - *एवं भगवती देवी सा नित्यपि पुनः पुनः*।

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