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    भगवान विष्णु नारायण कैसे हुए और हमारे शरीर के एक एक अंग कैसे उत्पन्न हुई और उसके महत्व: SKGupta


    उत्तर प्रदेश बलिया 
    इनपुट: हिमांशु शेखर 
    बलिया उत्तरप्रदेश:--जब पूर्वोक्त विराट् पुरुष ब्रह्माण्ड को फोड़कर निकला, तब वह अपने रहने का स्थान ढूँढ़ने लगा और स्थान की इच्छा से उस शुद्ध-संकल्प पुरुष के अत्यन्त पवित्र जल की सृष्टि की ॥

    विराट् पुरुषरूप 'नर' से उत्पन्न होने के कारण ही जल का नाम 'नार' पड़ा और उस अपने उत्पन्न किये हुए 'नार' में वह पुरुष एक हजार वर्ष तक रहा, इसी से उसका नाम 'नारायण' हुआ ।

    उन नारायण भगवान्‌ की कृपा से ही द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव आदि की सत्ता है। उनके उपेक्षा कर देने पर और किसी का अस्तित्व नहीं रहता  उन अद्वितीय भगवान् नारायण ने योगनिद्रा से जगकर अनेक होने की इच्छा की । तब अपनी माया से उन्होंने अखिल ब्रह्माण्ड के बीज स्वरूप अपने सुवर्णमय वीर्य को तीन भागों में विभक्त कर दिया—अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत। परीक्षित्! विराट् पुरुष का एक ही वीर्य तीन भागों में कैसे विभक्त हुआ, सो सुनो

    विराट् पुरुष के हिलने-डोलने पर उनके शरीर में रहने वाले आकाश से इन्द्रिय बल, मनोबल और शरीर बल की उत्पत्ति हुई। उनसे इन सबका राजा प्राण उत्पन्न हुआ ॥

     जैसे सेवक अपने स्वामी राजा के पीछे-पीछे चलते हैं, वैसे ही सबके शरीरों में प्राण के प्रबल रहने पर ही सारी इन्द्रियाँ प्रबल रहती हैं और जब वह सुस्त पड़ जाता है, तब सारी इन्द्रियाँ भी सुस्त हो जाती हैं ॥

    जब प्राण जोर से  आने-जाने लगा, तब विराट् पुरुष को भूख-प्यास का अनुभव हुआ। खाने-पीने की इच्छा करते ही सबसे पहले उनके शरीर में मुख प्रकट हुआ ॥

    मुख से तालु और तालु से रसनेन्द्रिय प्रकट हुई। इसके बाद अनेकों प्रकार के रस उत्पन्न हुए, जिन्हें रसना ग्रहण करती है ॥१८॥ जब उनकी इच्छा बोलने की हुई तब वाक्-इन्द्रिय, उसके अधिष्ठाता देवता अग्नि और उनका विषय बोलना—ये तीनों प्रकट हुए। इसके बाद बहुत दिनों तक उस जल में ही वे रुके रहे  श्वास के वेग से नासिका-छिद्र प्रकट हो गये। जब उन्हें सूँघने की इच्छा हुई, तब उनकी नासिका में घ्राणेन्द्रिय आकर बैठ गयी और उसके देवता गंध को फैलाने वाले वायुदेव प्रकट हुए ॥

     पहले उनके शरीर में प्रकाश नहीं था फिर जब उन्हें अनेकों तथा दूसरी वस्तुओं को देखनेकी इच्छा हुई, तब नेत्र छिद्र प्रकट हो गये, उनका अधिष्ठाता सूर्य और नेत्रेन्द्रिय प्रकट हो गये। इन्हें से रूप का ग्रहण होने लगा  जब वेदरूप ऋषि विराट् पुरुष को स्तुतियों के द्वारा जगाने लगे, तब उन्हें सुनने की इच्छा हुई। उसी समय कान, उनके अधिष्ठाता देवता दिशाएँ और श्रोत्रेन्द्रिय प्रकट हुए। इसी से शब्द सुनायी पड़ता है  जब उन्होंने वस्तुओं की कोमलता, कठिनता, हलकापन, भारीपन, उष्णता और शीतलता आदि जाननी चाही तब उनके शरीर में चर्म प्रकट हुआ। पृथ्वी में  जैसे वृक्ष निकल आते हैं, उसी प्रकार उस चर्म में रोएँ पैदा हुए और उसके भीतर-बाहर रहने वाले वायु भी प्रकट हो गया। स्पर्श ग्रहण करने वाली त्वचा-इन्द्रिय भी साथ-ही-साथ शरीर में चारों ओर लिपट गयी और उससे अनेक प्रकार के स्पर्श का अनुभव होने लगा ॥

     जब उन्हें अनेकों प्रकार के कर्म करने की इच्छा हुई, तब उनके हाथ उग आये। उन हाथों में ग्रहण करने की शक्ति हस्तेन्द्रिय तथा उनके अधिष्ठाता इन्द्र प्रकट हुए और दोनों के आश्रय से होनेवाला ग्रहण रूप कर्म भी प्रकट हो गया जब उन्हें अभीष्ट स्थान पर जाने की इच्छा हुई, तब उनके शरीर में पैर उग आये। चरणों के साथ ही चरण-इन्द्रिय के अधिष्ठाता स्वरूप में वहाँ स्वयं यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु स्थित हो गये और चरणों में चलना रूप कर्म प्रकट हुआ। मनुष्य इसी चरणेन्द्रिय से चलकर यज्ञ-सामग्री एकत्र करते हैं ॥

     सन्तान, रति और स्वर्ग-भोग की कामना होने पर विराट् पुरुष के शरीर में लिंग की उत्पत्ति हुई। उसमें उपस्थेन्द्रिय और प्रजापति देवता तथा इन दोनों के आश्रय रहने वाले काम सुख का आविर्भाव हुआ  जब उन्हें मल-त्याग की इच्छा हुई, तब गुदाद्वार प्रकट हुआ। तत्पश्चात् उससे पायु-इन्द्रिय और मित्र-देवता उत्पन्न हुए। इन्हीं दोनों के द्वारा मलत्याग की क्रिया सम्पन्न होती है ॥ 

    अपानमार्ग द्वारा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने की इच्छा होने पर नाभिछिद्र प्रकट हुआ। उससे अपान और मृत्यु देवता प्रकट हुए। इन दोनों के आश्रय से ही प्राण और अपान का बिछोह यानी मृत्यु होती है जब विराट् पुरुष को अन्न-जल ग्रहण करने की इच्छा हुई, तब कोख, आँतें और नाड़ियाँ उत्पन्न हुईं। साथ ही कुक्षिक के देवता समुद्र, नाड़ियों के देवता नदियाँ एवं तुष्टि और पुष्टि—ये दोनों उनके आश्रित विषय उत्पन्न हुए ॥

     जब उन्होंने अपनी माया पर विचार करना चाहा, तब हृदय की उत्पत्ति हुई। उससे मनरूप इन्द्रिय और मन से उसका देवता चन्द्रमा तथा विषय, कामना और संकल्प प्रकट हुए ॥३०॥ विराट् पुरुष के शरीर में पृथ्वी, जल और तेज से सात धातुएँ प्रकट हुईं—त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा और अस्थि। इसी प्रकार आकाश, जल और वायु से प्राणों की उत्पत्ति हुई  श्रोत्र आदि सब इन्द्रियाँ शब्दा आदि विषयों को ग्रहण करने वाली हैं। वे विषय अहंकार से उत्पन्न हुए हैं। मन सब विकार का उत्पत्ति स्थान है और बुद्धि समस्त पदार्थों का बोध करानेवाली है ।

    मैंने भगवान्‌ के इस स्थूलरूप का वर्णन तुम्हें सुनाया है। यह बाहर की ओर से पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन आठ आवरणों से घिरा हुआ है ॥
    इससे परे भगवान्‌ का अत्यन्त सूक्ष्म रूप है। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि, मध्य और अन्त से रहित एवं नित्य है। वाणी और मनकी वहाँ तक पहुँच नहीं है ।

    मैंने तुम्हें भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म—व्यक्त और अव्यक्त—जिन दो रूपोंका वर्णन सुनाया है, ये दोनों ही भगवान्‌ की माया के द्वारा रचित हैं। इसलिये विद्वान् पुरुष इन दोनों को ही स्वीकार नहीं करते ॥

    वास्तव में भगवान् निष्क्रिय हैं। अपनी शक्ति से ही वे सक्रिय बनते हैं। फिर तो वे ब्रह्मा का या विराट् रूप धारण करके वाच्य और वाचक—शब्द और उसके अर्थ के रूप में प्रकट होते हैं और अनेकों नाम, रूप तथा क्रियाएँ स्वीकार करते हैं ।

    परीक्षित्! प्रजापति, मनु, देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, असुर, यक्ष, किन्नर, अप्सराएँ, नाग, सर्प, किम्पुरुष, उरग, मातृकाएँ, राक्षस, पिशाच, प्रेत, भूत, विनायक, कूष्माण्ड, उन्माद, वेताल, यातुधान, ग्रह, पक्षी, मृग, पशु, वृक्ष, पर्वत, सरीसृप इत्यादि जितने भी संसार में नाम-रूप हैं, सब भगवान्‌ के ही हैं।।

                                 !!जय श्री कृष्णा!!

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