उत्तर प्रदेश बलिया
इनपुट: हिमांशु शेखर
बलिया उत्तरप्रदेश:---बनारस के मैदानों पर मूसलाधार पानी बरस रहा था। अपनी फूस की छत पर लगातार होती खटपट से बेपरवाह कबीर, गुनगुनाता हुआ अपनी खड्डी पर बुनाई कर रहा था।”
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“ये बरखा कब रुकेगी ?” माई लोई ने कुढ़ कर कहा| “बाज़ार कितने दिनों से बंद पड़ा है। न घर में आटा है, न हमारा कोई कपड़ा बिका है। साहूकारों से उधार भी अब और नहीं मिलने वाला।”
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इससे पहले कि कबीर कोई जवाब देता, उनके दरवाज़े पर दस्तक हुई।
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माई लोई ने उठकर द्वार खोला। कुछ साधु मिलने आये थे। कबीर ने अपनी पत्नी की ओर देखा। माई लोई उसे ही देख रही थी। वह जानती थी कि उसे अब क्या करना होगा।
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मेहमानों को आसन पानी देने के बाद, मेज़बान जब उन से गहरी बातचीत में डूब गया, तो अपनी चौखट से बाहर होती वर्षा में माई लोई चुपचाप निकल गई।
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थोड़े दाल और चावल उधार लाने की उम्मीद लिए, वह हाट तक जा पहुँची। कई दुकानें बंद थीं। जो खुली थीं, उन के साहूकार धंधे में प्रकृति के डाले अड़ंगे से चिड़चिड़े हुए बैठे थे।
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“दमड़ी लाई हो ?” वे पूछते।
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वह सिर हिला देती।
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“चुकाओगी कब?” वे पूछते।
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“जब कोई हमें चुकाएगा,” वह जवाब देती।
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आज ये जवाब काफी न था। अंधकारमय आसमान की ओर ऊपर देखकर, वे सर हिला देते। और किराना खरीदने के लिए उन्हें भी नगद की ज़रुरत थी।
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उनके पास भी जो थोड़ा कुछ था, उसमें से ज़्यादातर तो उधार पर ही बिका हुआ था।
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लोई कई दुकानदारों के पास गयी, लेकिन आज सभी नकदी चाहते थे। आखिरकार, उनके भी अपने परिवार थे, जिनका उन्हें पेट भरना था। बारिश ने सभी गरीब कारीगरों को त्रस्त कर दिया था।
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अपने नाम के बावजूद, कबीर था तो एक गरीब जुलाहा ही। गरीबी को उधार दिलवाते दिलवाते प्रसिद्धि के कोष भी चुक जाते हैं। भूखे पेट सिर्फ सद्भावना या अच्छे कर्मों से तो भरे नहीं जा सकते लोई ये सब समझती थी।
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वह चलती गयी, चलती गयी। घर से दूर, और दूर। विनती करती, माँगती.. असफल। इतनी दूर तो आज से पहले वह कभी नहीं गयी थी। आशा से भरकर माँगती, लेकिन हर इनकार से और निराश हो जाती।
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एक साहूकार, जिसे वह जानती नहीं थी, उधार पर राशन देने के लिए मान गया। इस शर्त पर, कि रात वह उसके साथ बिताये।
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लोई बरसात में ठगी-सी खड़ी रह गयी, हतप्रभ कि हँसे या रोये, कैसे इसका जवाब दे।
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“भीगी हो, थक गयी हो,” उसने मक्कारी से कहा। “बहुते मति सोचो। जो लैनोए, अभी ले जाओ। बाद में आ जाना।”
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उसे दरवाज़े पर जड़वत खड़े, पाँव-तले के कीचड़ को मूर्खता से घूरते देख, साहूकार ने उसकी हैरत को रज़ामंदी समझ लिया। उसने सौदा भर कर उसे दे दिया।
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“पका कर परोस दो अब,” उसने कहा। “घर में सब भूखे होंगे। सांझ ढले लौट आना। मैं यहीं तुम्हारी बाट जोहूँगा।”
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वह सदमे में थी, लेकिन विरोध करने की ताकत न थी उसमें। सौदा थामे वह चुपचाप मुड़ी और घर को चल दी।
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आसमान में छाई बदली आकाश पर कालिख पोत रही थी। बारिश और हवा उसे कोड़े लगा रही थी। पर उसने उन्हें महसूस न किया। हाथों में उठाये सामान के भार से भी बेखबर, वह चलती चली गयी। न उसने फ़र्ज़ के बारे में सोचा, न ज़िल्लत के बारे में।
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वह बंद दुकानों के पास से निकली। झोंपड़ियों की टपकती खपरैलों के पास से गुज़री। कदम दर कदम। जैसे कोई मशीन हो। घर कब पहुँच गयी, उसे खबर न हुई। खाना कैसे पकाया उसने, कैसे परोस डाला, उसे खबर न हुई।
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पलक झपकते, सब खत्म भी हो गया। मेहमान उठे, चले गए। जो बचा, उसने खा लिया। बर्तन धोये। झोंपड़ी में घूमती रही, अपने काम निपटाती। निर्विचार, निर्मम, निर्जीव।
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कबीर ने कुछ बदलाव महसूस किया। संझा की दिया बाती के बाद जब दोनों बिस्तर पर लेटे, तो पूछा उसने। लोई की चुप्पी का बाँध टूट गया।
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“तो जाओ अब,” सब कुछ सुनकर कबीर ने कहा।
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उधार चुकाने का वक़्त आ गया था, पर भुगतान बहुत भारी पड़ रहा था। लोई ने आपत्ति की।
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“दाम तो पता था तोये,” कबीर ने समझाया। “सौदा ले आई। चुकाने की बारी आई, तो रोवो मति। जाके चुकाओ।”
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“लेकिन...?” वह रो पड़ी।
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“सब ठीक ह्वेगो,” कबीर ने दिलासा दिया। “जाओ!”
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लोई के अंग कमज़ोर पड़ गए, देह भारी हो गयी। लगभग पीड़ा से भरी, वह उठी और झोंपड़ी की चौखट की ओर धीरे-धीरे चल दी। फिर अचानक कंपकंपाई और लगभग ढह गयी।
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“रुको,” कबीर ने पीछे से आवाज़ दी। “अँधेरा ह्वेरोय, बरस भी रई ए, कीच बहुत ह्वेगो। हम लै चलेंगे वहां तोय।”
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उसने उठकर लोई को एक कम्बल में लपेटा और अपनी पीठ पर उठा लिया। फिर घर से निकल कर, चुपचाप साहूकार की दुकान की ओर धीरे-धीरे चल पड़ा। वहाँ पहुँच, उसने उसे उतारा और दुकान के बाहर इंतज़ार करने लगा।
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माई लोई ने दुकान के मुहाने पर पड़ी चिक उठाई, और अन्दर छाये अंधियारे में चली गयी।
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दुकानदार जाग रहा था। उम्मीद ने उसकी नींद चुरा ली थी।
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"आ गयी ?" आहट सुन कर उसने पूछा।
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"हाँ," माई बोली।
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वह बिस्तर से तीर की तरह उठा, और दिया जलाने के लिए अँधेरे में टटोलने लगा।
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"सन गयी होगी," उसने दीपक जलाते हुए कहा। "कोने में पाँव धोके, यहाँ खाट पर आ जा।"
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पर लोई अपनी जगह जड़वत खड़ी रही
दीपक की फैलती रौशनी में, बनिया ये देखकर दंग रह गया कि उसके कपड़ों या पैरों पर कीचड़ का नामो-निशान तक न था।
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“पोखर-भरे अँधेरे रास्तन से आई,” उसने हैरत से पूछा। “फिर भी सनी कैसे न ?”
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लोई फूट-फूट कर फिर रो पड़ी। सब बता दिया उसने।
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“क्या.?” सुन कर वह सकते में आ गया। “तेरा मरद तुझे यहाँ लै के आया ?”
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“हाँ,” उसने जवाब दिया। “वो बाहर है।”
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“उसे खबर थी तू यहाँ क्यों आईं ?” उसने फिर पूछा।
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“हाँ।"
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“फिर भी तुझे उठा के यहाँ ल्याया ?” चकित बनिए ने पूछा। "क्यूं कर ?"
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“कर्ज़ा चुकाने,” वह सिसक उठी, और अचानक दर्द से अभिभूत हो गयी।
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बात साहूकार को गहरे छू गयी। दिया लिए, वह लड़खड़ाता, बाहर की अँधेरी गीली पगडण्डी पर निकल आया।
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कबीर को देखते ही उसपर जैसे गाज-सी गिर पड़ी। उसने उसे एकदम पहचान लिया।
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वह कबीर के क़दमों पर गिर गया, पर माफ़ी मांगने के लिए मुँह से शब्द न निकले। गला सूख कर काँटा हो गया था।
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कबीर समझ गए। उसके कंधे पर हल्के से हाथ रख कर बोले, “कभी भटका न हो, ऐसो तो कोई बिरला ही होगो।”
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फिर चुपचाप अपनी पत्नी को लिए, वापिस घर लौट गए।
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उन के लौट जाने के बहुत देर बाद तक भी, साहूकार वहीं अँधेरे में बैठा भीगता रहा। रात लम्बी थी, अकेली थी। देखने में वह खुद से और अपनी दुनिया से तृप्त लगता था, मगर ग्लानि उसके दिमाग को भंवर की तरह दोह रही थी।
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चक्कर, चक्कर, चक्कर
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“अपने जीवन के बारे में सोचता रहा वह,”
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“और सोचता रहा उस बारे में, जो हो गया था। रह-रह कर उसके गालों पर गर्म आँसू ढुलक आते, उसके अपराध भाव के नमक से भरे, उसकी ज़िल्लत के एहसास से तपे।”
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“भोर हुई। वह उठ खड़ा हुआ। कबीर के पास गया और उनका शिष्य बन गया। फिर जीवन भर, उन्हीं को समर्पित रहा।”
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नोट: ये कहानी Tales of the Mystic East, राधा स्वामी सत्संग ब्यास, बाबा बरखा नाथ प्रिंटर्स, नयी दिल्ली, भारत, 1961, की एक कहानी ‘How Saints Change Lives ( संत जीवन कैसे बदल देते हैं ), pp 55, से प्रेरित है। ये किताब ऐतिहासिक रूप से प्रामाणिक होने का दावा नहीं करती।
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साभार :- अध्यात्मिक कहानियां
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